अपनी आत्मा के आलिंगन में मैं पूरा विश्व किए हूँ धारण :
मुझमें ‘स्वाति’ एवं ‘पुष्य’ नक्षत्र होते हैं ज्वलन्त ।
जिस किसी सजीव रूप की ओर मैं घुमाता हूँ अपनी दृष्टि
देखता हूँ अपने ही शरीर के साथ एक अन्य मुखाकृति ।
वे सभी नेत्र जो देखते हैं मेरी ओर हैं एकमात्र मेरे ही नेत्र;
जो एक ह्रदय धड़कता है सबके सीने में है मेरा ही ह्रदय ।
विश्व का सुख प्रवाहित होता है मदिरा की तरह मुझमें होकर,
इसके लाखों दुःख संताप हैं मेरी ही यन्त्रणाएँ ।
फिर भी इसकी सभी क्रियाएँ हैं मात्र लहरें जो गुज़रती हैं
मेरी ऊपरी सतह पर ; मेरा अन्तस्थ है सर्वदा निश्चल,
अजन्मा मैं बैठा हूँ , कालातीत, अमूर्त्त अगोचर :
समस्त पदार्थ हैं परछाइयाँ मेरे स्वच्छ दर्पण में ।
मेरी विशाल सार्वभौमिकता विश्व का चक्र है सम्हाले;
मैं इसमे हूँ छिपा हुआ एक मोती समुद्र में जैसे ।
कविता – श्री अरविन्द
The Indwelling Universal – a poem by Sri Aurobindo
अनुवाद – विमला गुप्ता बेनवेनुता