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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.
"मनुष्य की शिक्षा उसके जन्म काल से ही आरंभ हो जानी चाहिये और उसके समूचे जीवन चलती रहनी चाहिये । बल्कि, सच पूछा जाये तो, यदि शिक्षा को अत्यधिक मात्रा में फलदायक होना हो तो उसे जन्म से पहले ही आरंभ हो जाना चाहिये । वास्तव में, स्वयं माता ही इस शिक्षा का प्रारंभ द्विविध क्रिया के द्वारा करती है : सबसे पहले यह अपनी निजी उन्नति के लिये उसे स्वयं अपने ऊपर आरंभ करती है, और फिर उसे बच्चे के ऊपर आरंभ करती है जिसे वह अपने अंदर स्थूल रूप में गढ़ती है । यह बात निश्चित है कि जन्म लेने वाले बच्चे का स्वभाव बहुत कुछ उसे उत्पन्न करने वाली माता पर, उसकी अभीप्सा और संकल्प पर निर्भर रहता है, और जिस भौतिक वातावरण में वह निवास करती है उसका प्रभाव तो पड़ता ही है । जो शिक्षा मां को प्राप्त करनी है उसके लिये यह बात ध्यान में रखनी होगी कि उसके विचार सदा सुंदर और शुद्ध हों, भाव उच्च और सूक्ष्म तथा चारों ओर का वातावरण यथासंभव सुसमंजस और अत्यंत सादगी से भरा हुआ हो । और अगर उसके साथ ही वह चेतन और निश्चित रूप में यह इच्छा भी रखे कि वह जिस ऊंचे-से-ऊंचे आदर्श को धारण कर सकती है उसी के अनुसार वह बच्चे को बनायेगी तो बच्चे को संसार में लाने के लिये खूब उत्तम अवस्थाएं प्राप्त करनी होंगी और उसके लिए अधिक से अधिक संभावनाएं खुल जायेंगी । भला ऐसी अवस्था में कितने अधिक कठिन प्रयासों और निरर्थक जटिलताओं से बचा जा सकता है !
शिक्षा के पूर्ण होने के लिये उसमें पांच प्रधान पहलू होने चाहिये । इनका संबंध मनुष्य की पांच प्रधान क्रियाओं से होगा – भौतिक, प्राणिक, मानसिक, आंतरात्मिक और आध्यात्मिक । साधारणतया, शिक्षा के यह सब पहलू व्यक्ति के विकास के अनुसार, एक के बाद एक, कालक्रम से आरंभ होते हैं । परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि एक पहलू दूसरे का स्थान ले ले, बल्कि सभी पहलुओं को जीवन के अंत काल तक, परस्पर एक-दूसरे को पूर्ण बनाते हुए जारी रहना चाहिये ।
हम यहां शिक्षा के इन पांचो पहलुओं पर एक-एक करके विचार करेंगे और उनका पारस्परिक संबंध भी समझने का प्रयत्न करेंगे, परंतु इस विषय के विस्तार में जाने से पहले मैं माता-पिताओं को एक सलाह देना चाहती हूं । इनमें अधिकतर लोग विभिन्न कारणों से बच्चों की सच्ची शिक्षा के विषय में बहुत कम सोचते हैं । जब उन्होंने संसार में एक बच्चे को जन्म दे दिया, उसके भोजन का प्रबंध कर दिया तथा उसका स्वास्थ्य बनाये रखने के लिये लगभग काफी अच्छे ढंग से देखभाल करते हुए उसकी विभिन्न भौतिक आवश्यकतायें पूरी कर दी तब वह समझ लेते हैं कि उन्होंने अपना कर्तव्य पूरी तौर से निभा दिया है । कुछ दिन बाद वे उसे स्कूल में प्रविष्ट करा देंगे और उसकी मानसिक शिक्षा का भार अध्यापक के हाथों में सौंप देंगे ।
कुछ माता-पिता ऐसे भी होते हैं जो यह जानते हैं कि उनके बच्चे को शिक्षा मिलनी चाहिये और वह उसे शिक्षा देने की चेष्टा भी करते हैं । पर उनमें से बहुत थोड़े से लोग – जो इस विषय में अत्यंत तत्पर और सच्चे होते हैं उनमें से भी बहुत थोड़े लोग यह जानते हैं कि बच्चों को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिये सबसे पहला कर्तव्य है अपने-आपको शिक्षा देना, अपने विषय में सचेतन होना और अपने ऊपर प्रभुत्व स्थापित करना, ताकि हम अपने बच्चों के सामने कोई बुरा उदाहरण न पेश करें । क्योंकि एकमात्र उदाहरण के द्वारा ही शिक्षा फलदायी बनती है । यदि हम अपने जीवन के उदाहरण के द्वारा अपनी सिखायी बातों का सत्य उसे न दिखा दें तो केवल अच्छी बातें करने और बुद्धिमानी का परामर्श देने का, बच्चों पर बहुत थोड़ा प्रभाव पड़ता है । सच्चाई, ईमानदारी, स्पष्टवादिता, साहस, निष्काम-भाव, निस्वार्थता, धैर्य, सहनशीलता, अध्यवसाय, शांति, स्थिरता, आत्म-संयम आदि ऐसे गुण है जो सुंदर भाषणों की अपेक्षा अनंत गुना अधिक अच्छे रूप में अपने उदाहरण के द्वारा सिखाये जाते हैं । माता-पिताओं ! एक ऊंचा आदर्श अपने सामने रखो और उसी आदर्श के अनुकूल सर्वदा कार्य करो । तुम देखोगे कि तुम्हारा बच्चा भी धीरे-धीरे उस आदर्श को अपने अंदर ला रहा है, और जो-जो गुण तुम उसके स्वभाव में देखना चाहते हो उन्हें वह अपने-आप अभिव्यक्त कर रहा है । यह अत्यंत स्वाभाविक है कि बच्चे अपने माता-पिता के प्रति आदर और भक्ति-भाव रखते हैं; अगर वह एकदम योग्य ही न हो तो वह अपने बच्चों को देवता जैसे प्रतीत होते हैं और बच्चे यथाशक्ति उत्तम-से-उत्तम रूप में उनका अनुकरण करने की चेष्टा करते हैं ।
बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर, प्रायः सभी माता-पिता इस बात का विचार नहीं करते कि उनके दोषों, आवेगों, दुर्बलताओं और आत्म संयम के अभाव का उनके बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है । अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करें तो अपने लिये आदर-भाव रखो और प्रत्येक मुहूर्त सम्मान के योग्य बनो । कभी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत होओ । जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोई प्रश्न पूछे तब तुम, यह समझ कर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकता, उसे जड़ता और मूर्खता के साथ कोई उत्तर मत दो । अगर तुम थोड़ा कष्ट स्वीकार करो तो तुम सदा ही उसे अपनी बात समझा सकोगे । इस प्रसिद्ध उक्ति के होते हुए भी कि सत्य बोलना सदा अच्छा नहीं होता, मैं दृढ़ता पूर्वक कहती हूं कि सत्य बोलना सदा अच्छा होता है । चतुराई केवल इस बात में है कि उसे इस ढंग से कहा जाये कि सुननेवाले का मस्तिष्क उसे ग्रहण कर ले । जीवन के प्रारंभिक काल में बारह से चौदह वर्ष की अवस्था तक, बच्चों का मन सूक्ष्म भावनाओं और सामान्य विचारों तक नहीं पहुंच पाता । फिर भी, तुम ठोस उपमा, रूपक या दृष्टांत द्वारा ये सब चीज समझने का अभ्यास उसे करा सकते हो । काफी बड़ी उम्र तक और जो लोग मानसिक रूप से सदा छोटे ही बने रहते हैं उन लोगों के लिये सैद्धांतिक विवेचन के एक ढेर की अपेक्षा, एक आख्यान, एक कथानक, यदि अच्छे ढंग से कहा जाये तो, अधिक शिक्षाप्रद होता है ।
एक और भूल से तुम्हें बचना होगा : जब तक कोई निश्चित उद्देश्य न हो और एकदम अनिवार्य न हो जाये तबतक कभी अपने बच्चों को बुरा-भला मत कहो । बार-बार डांट-फटकार खाने से बच्चा उसके प्रति कुंद हो जाता है और फिर वह शब्दों और स्वर की कठोरता को बहुत अधिक महत्व नहीं देता । विशेषकर इस बात की सावधानी रखो कि ऐसे अपराध के लिये, जिसे तुम स्वयं करते हो, उसे कभी मत डांटो । बच्चों की दृष्टि बड़ी पैनी और साफ होती है, वे बहुत जल्दी तुम्हारी दुर्बलताओं का पता लगा लेते हैं और उन्हें बिना किसी दयाभाव के नोट कर लेते हैं ।
जब बच्चा कोई भूल कर बैठे तो अपनी ओर से ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दो कि वह अपने आप सरलता और सच्चाई के साथ उसे स्वीकार कर ले । और जब वह स्वीकार कर ले तो तुम दयालुता और प्रेम के साथ उसे समझा दो कि उसके कार्य में क्या भूल थी और फिर उसे दोबारा वैसा नहीं करना चाहिये । किसी भी हालत में उसे बुरा-भला मत कहो, स्वीकार किये हुए अपराध को अवश्य क्षमा कर देना चाहिये । तुम्हें अपने और अपने बच्चों के बीच किसी प्रकार का भय नहीं घुसने देना चाहिये, भय के द्वारा शिक्षा देना बहुत खतरनाक तरीका है, यह सदा ही छल-कपट, और असत्य को उत्पन्न करता है । स्पष्टदर्शी, सुदृढ़, पर साथ ही कोमल प्रेम और पर्याप्त व्यवहारिक ज्ञान विश्वास का बंधन पैदा करते हैं, जो तुम्हारे बच्चे की शिक्षा को फलदायी बनाने के लिये अत्यंत आवश्यक होता है । और फिर, यह कभी न भूलो कि तुम्हें अपने कर्तव्य के शिखर पर स्थित रहने तथा उसे वास्तविक रूप में निभाने के लिये सदा और निरंतर ऊपर उठना होगा । बच्चें को जन्म देने के नाते ही तुम्हें उसके प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिये ।