Daily Quotes

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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.

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बालक क्या है ?

“भविष्य की आशा, 

“आगामी के निर्माता । 

“एक विकसनशील आत्मा । 

“जिस देश के वातावरण में बालक पैदा होता है उसकी शिक्षा वहीँ हो तो उसका सर्वांगीण विकास तेजी से होता है ।“ 

- श्री अरविन्द

॥ बालक प्राचीनकाल की धारणा ॥
  • बालक पिता की संपत्ति है, उत्पादन है ।  
  • पिता बालक को अपनी इच्छानुसार गढ़ता था। 
  • पिता हर चीज अपने अनुसार बच्चों को देता था ।  
॥ नयी सोच नया दृष्टिकोण - बालक का अपना व्यक्तित्व है ॥
  • बालक एक आत्मा है उसकी अपनी प्रकृति है अपनी क्षमताएं हैं ।
  • जिसे इन तक पहुंचने के लिये सहायता दी जानी चाहिये ताकि वह अपने को पहचान सकें । 
  • अपनी शारीरिक, प्राणिक ऊर्जा को प्राप्त कर सकें । 
  • भावनात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक गहराइयों और विशालताओं को छू सकें ।      
स्वामी विवेकानंद -

“दिमाग में जानकारियां ठूँसने, रटने से ऊपर से आने वाले विचार और प्रेरणाएं बंद हो जाते हैं । यह प्रकृति के विरुद्ध है । ”    

॥ केवल जानकारी शिक्षा का दुष्प्रभाव ॥
  • स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो जाता है  । 
  • स्मरण शक्ति का ह्रास होता है ।
  • कोमल स्मृति यंत्र विचारों के दबाव से कमजोर हो जाता है । 
  • जिज्ञासा जागृत नहीं होती । 
  • यंत्रवत पढ़ाई से चेतना का विकास अवरुद्ध । 
  • आज बच्चे प्रतिस्पर्धा के कारण पाठ्यक्रम की किताबों में उलझकर केवल अंकों को पाने के लिए पढ़ाई कर रहे हैं । पाठ्यक्रम को जल्दी खत्म कर, दिमाग में आंकड़ों और सूचनाओं को ठूँसने से बालक की नैसर्गिक शक्ति का ह्रास हो रहा है  ।   
  • उसकी खोजी और विश्लेषक शक्ति कमजोर हो रही है । 
  • बच्चे उच्चतर चेतना से कट जाते हैं । 
  • प्रज्ञा में ज्ञान वहन करने की शक्ति कमजोर हो रही है ।  
श्री अरविन्द कहते हैं –

”मनुष्य मन पर जानकारी की छोटी-छोटी पुड़ियाओं में संभालकर रखने वाली

जानकारी बालक के आन्तरिक और बाह्य विकास में बाधक होती है l”

॥ बच्चों को शिक्षित करना, स्वयं को शिक्षित करना है ॥
  • माता-पिता स्वयं को सुसंस्कारित करें । उनके आचरण में आदर्श हो । 
  • माता-पिता जागरूक होकर स्वयं जीने की कला सीखें । 
  • आवेग, तानाशाही, स्वेच्छाचारी, चिड़चिड़ापन घातक है । 
  • बालक के उत्साह पर पानी न फेरें । 
  • बालक की रुचि के कार्य को प्रधानता । 
  • डांट-मार, अपमान न करें । 
  • सजा का भय न बतायें । 
  • प्रताड़ना बुरी चीज है । 
  • प्रेम और नरमी से सीखाना । 
  • प्रश्न का उत्तर अस्पष्टता से न दें, धैर्य से प्रश्न सुनें । 
  • तू शरारती है, भाग यहां से, मेरे पास समय नहीं है । यह आचरण बालक मन के विरुद्ध है।  
  • आवश्यक होने पर ही कुछ कहे किंतु शांति से । 
  • अनुशासन की कार्यवाही शांति से हो । 
  • बालक से मैत्री पूर्ण संबंध बनायें। 
॥ सर्वांगीण शिक्षण ॥
  • व्यवहारिक शिक्षा सिखायें –  बालक क्या है  ? यहाँ क्यों है ? सत्य क्या है
  • उसके अंदर आत्मा का क्या प्रयोजन है
  • बालक अपनी भूमिका पहचान सके । उसकी सत्ता के स्तरों – शरीर, प्राण, मन, हृदय, अंतरात्मा और आत्मा का पृथक – पृथक कार्य, उसकी महत्ता बताना । 
  • ताकि वह एक विकसनशील आत्मा तथा आध्यात्मिक सत्ता बन सके।
  • आत्म अनुशासित जीवन का प्रायोगिक अभ्यास ।
शारीरिक विकास की दृष्टि से शिक्षण के दो प्रकार –
1. शारीरिक शिक्षण
2. स्वास्थ्य शिक्षण

     शारीरिक शिक्षण –

  • बालक को स्वच्छता, सौंदर्य और पूर्णता से कर्म करना सीखना । 
  • प्रत्येक कर्म में रुचि और रस लेने की वृत्ति का विकास । 
  • वस्तुओं को सुरक्षित, सुव्यवस्थित करना, सुंदरता से रखना । 
  • कर्म से जी न चुराना । 
  • कर्म में चालाकी नहीं । 
  • शरीर की प्रत्येक क्रिया संयमित तथा नियमित करना । 
  • शरीर के सभी अंगों का विकास ।  
  • अगर शरीर में कोई दोष या विकृति हो तो उसे सुधारना ।

       स्वास्थ्य शिक्षण –

  • शरीर सुंदर, निरोग और स्फूर्तिवान रहे । 
  •  नियमित योग, व्यायाम, ध्यान। 
  • प्राकृतिक साहचार्य – टहलना, सूर्य स्नान, जलपान, खेलकूद, दौड़, पर्वतारोहण । 
  • उचित परिवेश । 
  • पंच तत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश का महत्व समझाना  
  • घरेलू उपचार का ज्ञान । 
  • रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास । 
  • पर्यावरण की सुरक्षा और स्वच्छता । 
  • प्रकृति और जीव जंतुओं से प्रेम और उनका संरक्षण ।
  • उत्तम किस्म के पौधे लगाना और उनका संरक्षण । 
भोजन-शरीर की आवश्यकता तथा उचित मात्रा -
  • फल – फूल हमारे मित्र । 
  • लोभ लालच या डांट से भोजन नहीं। 
  • नींद 7 घंटे आवश्यक है । जल्दी सोना, जल्दी उठना आवश्यक है । 
  • अकारण रात्रि में जागना हानिप्रद है । इससे मानसिक असंतुलन आ सकता है । प्रातः धरती पर ऊर्जा उतरती है और रात्रि में शांति । 
विशेष

स्वास्थ्य के लिए बच्चों को भोजन, नींद, मल त्याग आदि के विषय में पूरी शिक्षा देना आवश्यक है । 

  • आत्मरक्षा हेतु आत्म-संयम युक्त कर्म का प्रशिक्षण। 
  • शारीरिक व्यायाम जूडो-कराटे, तलवार चलाना, निशानेबाजी, अन्य कठिन खेल का प्रशिक्षण।  
  • सावधानी का प्रशिक्षण – मनमानी नहीं।  
  • माचिस की डिबिया जैसी घातक चीजों से सुरक्षा। 
  • छत की मुंडेर पर चढ़ना। 
  • सावधानी से सड़क पार करना। 
  • कुछ सीखने की इच्छा जागृत करना। 
  • जिद और गलत विचार से दूरी। 
  • अंदर से आ रही चेतावनी के प्रति सजगता।     

 

प्राणिक विकास –
  • पांचो इंद्रियों का समुचित विकास । (देखना, सुननासूंघना,बोलना, स्पर्श )   
  • विवेक शक्ति और रसवृत्ति का विकास । 
  • चरित्र निर्माण – दृढ़ इच्छा शक्ति, आत्म विश्वास का अभ्यास । 
  • निर्भयता, साहस, उत्साह, ।  
  • ललित कलाओं – संगीत चित्रकला, पुष्प सज्जा रंगोली आदि में रुचि ।
  •  स्वयं के अवलोकन का अभ्यास ( उदाहरण द्वारा ) । 
  • तकनीकि शिक्षा । 
  • प्रगति करने का संकल्प । 

विशेष  – प्रेम, ज्ञान ,शक्ति और सौंदर्य की शिक्षा । 

॥ मानसिक विकास ॥

बालक के चार गुण – 

  • जिज्ञासा, शोधक, चिंतक, कठोर रहस्य भेदक । 
  • कौतुहल, सहज चेतना, अनुकरण प्रवृत्ति, कल्पना शक्ति ।

सातवां वर्ष महत्वपूर्ण क्यों ?  

  • भावनात्मक परिवर्तन, तार्किक क्षमता का विकास ।  
  • रुचि के अनुसार कर्म का चुनाव । 
  • कार्य का अभ्यास, परिश्रम, चिंतन, अध्ययन ।  
  • कार्यक्षमता में वृद्धि । 
  • स्वतंत्र निर्णय क्षमता का जागरण । 
  • एकाग्रता का विकास ।

12 से 14 वर्ष – 

  • विचारों को ग्रहण करना । 
  • स्पष्टता । 
  • स्वच्छ विचार – चिंतन । 
  • रचनात्मक तथा उपयोगी जीवन ।

आवश्यक बातें – 

  • महापुरुषों के प्रेरणादायी विचारों को पढ़ने की प्रेरणा । 
  • एकाग्रता, स्थिरता का अभ्यास । 
  • अंदर की प्रेरणा को समझना । 
  • वाणी पर नियंत्रण । 
  • बुरी चीजों विचारों, बुरी कल्पनाओं, कुसंगति बुरे लोगों के संपर्क न आने देना । 

बच्चों को स्वयं जानना, और अपना स्वामी बनना सीखाना  – 

  • अहंकार, निराशा, दुःखी होना, अशुद्धता, हिंसा के दुष्परिणाम ।
  • कर्म में आलस न करना । 
  • कभी झूठ नहीं बोलना, परिणाम चाहे जो हो । 
  • कभी भूल नहीं करना । 
  • उग्रता, हिंसा, क्रोध- रोष पर नियंत्रण । 
  • पूर्ण सकारात्मक सोच । 
  • कठिनाइयों में निर्भयता । 
  • कठिनाइयों से खेलना । 
  • कठिनाइयों पर विजय । 
  • ईश्वर की सर्वसमर्थ शक्ति पर पूर्ण विश्वास ।
॥ भावनात्मक विकास॥

श्री मां के प्रतीक चिन्ह के 12 गुण   

  1. सत्य निष्ठा           
  2. विनम्रता 
  3. कृतज्ञता
  4. प्रयत्नशीलता
  5. अभीप्सा 
  6. ग्रहणशीलता
  7. प्रगति 
  8. साहस
  9. शुभभाव
  10. उदारता  
  11. समता
  12. शांति   
॥ अन्य भावनात्मक विकास ॥
  • देश प्रेम और भक्ति की भावना (सुविचार, संगीत, नृत्य, नाटक, कला आदि के माध्यम से )
  • प्रकृति से प्रेमऔर उसके संरक्षण की भावना ।  
॥ अंतरात्मिक और आध्यात्मिक विकास ॥
  • जीवन का लक्ष्य । 
  • मैं कौन हूं ? मैं पृथ्वी पर क्यों आया हूं
  • विचार कहां से आते हैं
  • विचार, कल्पना और संकल्प कैसे करें
  • आन्तरिक शक्तियों के विकास की बातें, सचेतन इच्छा शक्ति का विकास। 
  • वर्तमान में जीना । 
  • भविष्य को जीतने का संकल्प ।
  • सत्य की विजय सुनिश्चित है । इस पर विश्वास l
नयी सोच, नया दृष्टिकोण

“बालक एक आत्मा है, जिसका अपना अस्तित्व है, अपनी प्रकृति है, अपनी क्षमताएं हैं, और जिसे इन तक पहुंचने के लिए सहायता दी जानी चाहिये, ताकि वह अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान सके। सच्ची परिपक्वता प्राप्त कर सके । अपनी शारीरिक क्षमता और प्राणिक ऊर्जा को प्राप्त करे तथा अपनी सत्ता के भावनात्मक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक, शिखरों, गहराईयों और विशालताओं को छू सके।”

ऐसे बालक अतिमानव ( सुपरमैन ) बन सकते हैं ।

-- श्री अरविन्द

बच्चा चिंता नहीं करता

बच्चा अपने विकास के बारे में चिंता नहीं करता , वह बस बढ़ता जाता है । बच्चों के सरल विश्वास में बड़ी शक्ति होती है । जब बच्चा सामान्य परिस्थितियों में रहता है, तो उसे सहज विश्वास होता है कि उसे जिन चीजों की जरूरत होगी वह सब उसे मिल जायेंगी। 

यह विश्वास जीवन-भर अडिग बना रहना चाहिये , लेकिन बच्चे के अंदर अपनी आवश्यकताओं का सीमित, अज्ञान-भरा और सतही ज्ञान होता है, उसकी जगह उत्तरोत्तर अधिक विशाल, अधिक गहरे और अधिक सत्य विचार को ले लेनी चाहिये जो अंततः आवश्यकताओं का पूर्ण ज्ञान बन जाये और परम प्रज्ञा के साथ मेल खाता हो, यहां तक कि हमें यह अनुभव हो जाये कि केवल भगवान् ही जानते हैं कि हमारी सच्ची आवश्यकताएँ क्या हैं और हम हर चीज के लिए उन्हीं पर निर्भर रह सकें । सबसे अधिक महत्वपूर्ण शर्त है विश्वास, एक बालक-का-सा विश्वास और यह सरल भाव कि जरूरी चीज आ जायेगी, इसके बारे में कोई प्रश्न ही नहीं। जब बच्चे को किसी चीज की जरूरत होती है तो उसे विश्वास होता है कि वह आ ही जायेगी । इस प्रकार का सरल विश्वास या निर्भरता सबसे अधिक महत्वपूर्ण शर्त है । 

- श्री मां