Daily Quotes

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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.

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मृत्यु

एक मृत्यु – पाश से बँधी लघुता मात्र ही हम नहीं हैं :

हमारी विस्मृता महानताएं अमर हैं 

जो हमारी सता के शिखरों पर स्थित रह कर हमारी खोज की प्रतीक्षारता हैं ; 

सत्ता भी अमापित गहराइयाँ और विस्तार सब हमारे ही हैं । 

सावित्री ;

पर्व 1 आदि पर्व, सर्ग – रहस्य ज्ञान

मृत्यु का आध्यात्मिक अर्थ

प्रभु तो सर्वत्र व्याप्त है, प्रभु के लिए कोई भी वस्तु मृत या जीवित नहीं है ।प्रत्येक वस्तु शाश्वत रूप से जीवंत ही है।

- श्रीमाँ

धरती पर जीवन प्रवास में प्रत्येक मानव देह को स्पर्श करने वाली घटना जन्म तथा मृत्यु है । मानव जीवन में जन्म की तरह मृत्यु की क्रिया भी सहज, सरल, प्राकृतिक और परम् प्रभु की इच्छा से होती है ।     

जिस प्रकार प्रकृति की समस्त क्रियाएँ – पुष्प का खिलना, विकसित होना, पकना, और झड़ जाना सभी क्रियाएं सौंदर्य तथा आनंद से परिपूर्ण होती है l इसी प्रकार जन्म और मृत्यु यह दोनों भी प्राकृतिक होने पर सहज सौंदर्य तथा आनंद से परिपूर्ण हो सकते हैं । जो भागवत् चेतना में निवास करते हैं वही जन्म और मृत्यु की इस यात्रा में अपने स्वयं के अस्तित्व, जीवन के उद्देश्य के विषय में जागृत होकर जन्म और मृत्यु दोनों को जीवन की संपूर्ण प्रगति तथा परमात्मा प्राप्ति हेतु एक सहज, प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं, किंतु मनुष्य के सीमित मन की असंख्य कल्पनाओं ने जन्म की तुलना में मृत्यु की सहज क्रिया को विकृत एवं घृणास्पद बना दिया है । अतएव, जब  मृत्यु उसके सम्मुख आती है तब वह काँपकर दुखी हो जाता है । सोचता है-क्या अब मुझे सब कुछ यहां से छोड़कर चले जाना होगा और जाना भी कहां होगा ? उसे इस अज्ञात रास्ते का कुछ भी ज्ञात नहीं । बस, यही भय उसे जीवन के अंतिम क्षण तक उद्वेलित, अशांत और भयभीत करता रहता है ।    

किंतु आत्मा द्वारा मानव देह को त्यागकर शरीर से बाहर निकल जाने की घटना मृत्यु जितनी सहज और सुनिश्चित है उतना ही सभी उसे रोकने का प्रयत्न करते हैं । किंतु मृत्यु के रहस्य को कोई भी आज तक नहीं जान सका है ।     

अपने स्वजन की मृत्यु का आघात शोक, भय, संत्रास, संताप, दु:ख शारीरिक और मानसिक अस्थिरता पैदा करता है । इन सबसे उबरने, मृत्यु के विषय में सच्चा ज्ञान प्राप्त करने, मृत्यु के भय में जीने वालों के लिये, मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाने में तथा बिदा लेती हुई आत्मा को कैसे बिदा किया जाये, मृत्यु के बाद अपने स्वजन की यात्रा में सच्ची सहायता तथा विश्रांति प्रदान करने में, मृत्यु पर विजय की महान् यात्रा में तथा मृत्यु को परम् प्रभु का स्पर्श दिलाने में यह लघु प्रयास अवश्य सहायक सिद्ध होगा ।     

इन विचारों को पढ़कर हमारे मन में परम् प्रभु की असीम शांति, जीवन में धैर्य तथा साहस के साथ जीने का नया विश्वास जागृत होगा तथा मृत्यु की घटना को प्रगति और आत्म-विस्तार के साधन के रूप में जानने के लिये, सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में ये विचार सहायक सिद्ध होंगे ।     

श्रीमां ने कहा है – 

धन की हानि कम महत्व रखती है परन्तु सन्तुलन की हानि बहुत अधिक महत्वपूर्ण चीज है।

उपनिषद् कहता है –

…अग्र आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत् । अशनाययाशनाया हि मृत्युस्तन्मनोS कुरुतात्मन्वी स्यामिति ॥

– बृहदारण्यकोपनिषद् १.२.१

शुरू में सब कुछ क्षुधा से, जो कि मृत्यु है, ढका हुआ था । उसने अपने लिये मन बनाया ताकि वह आत्मवान् बन सके । 

  • “जीवन” है और फिर “मृत्यु” है ; जीवन कष्टों की गठरी है, और मृत्यु शाश्वत शांति । लेकिन बात ऐसी हर्गिज नहीं है ।     
  • जन्म से मरण तक जीवन एक खतरनाक चीज है । साहसी इसमें से खतरों की परवाह किए बिना गुजर जाते हैं । सावधान सतर्कता से काम करते हैं। भीरू सभी चीजों से डरते हैं । लेकिन अंत में हर एक के साथ होता वही है जो परम् संकल्प ने निश्चित किया हो ।       
गीता के अनुसार -

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः…

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। 

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।…

शरीरस्थ आत्मा जो शाश्ववत है, उसके इन शरीरों का एक अंत है।वह न तो जन्म लेता है न मरता है और न ऐसा है कि एक बार हो गया तो आगे न होगा । वह अज, नित्य, शाश्वत और पुराण है, शरीर का हनन होने पर भी उसका हनन नहीं होता । जैसे आदमी अपने पुराने कपड़े उतार फेंकता है और नये-नये कपड़े पहन लेता है, इस तरह शरीरस्थ सत्ता अपने शरीर को त्यागकर नये-नये शरीरों को धारण करती है । जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है उसका जन्म भी ध्रुव है ।

गीता २.१८ ,२०, २२, २७ 

उपनिषद् कहता है –

…आत्मविवृद्धिजन्म

कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रद्यते ।।

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।…

आत्मा का जन्म होता है; उसकी वृद्धि होती हैl अपने कर्मों के अनुसार शरीरस्थ आत्मा उत्तरोत्तर नाना स्थानों पर जन्म लेती है l अपनी प्रकृति के गुणों की शक्ति के अनुसार वह बहुत-से स्थूल और सूक्ष्म रूप धारण करती है l

श्वेताश्वतर ५.११,१२

एक सचेतन सत्ता ही आत्मा का केंद्र है जो भूत और भविष्य का ईश है l …  वह धुएँ के बिना आग जैसा है … उसे हमें अपने शरीर से धैर्य के साथ अलग करना होगा ।     

ऋग्वेद के अनुसार -

हृदय में एक अंतर्भास इस सत्य को देखता है l किंतु मनुष्य के सामने अनन्तकाल से यह प्रश्न उपस्थित है कि आखिर मृत्यु है क्या, और इस पर मनुष्य कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ? 

“मृत्यु व प्रश्न है जिसे प्रकृति सदा ही ‘जीवन’ के सामने उसे यह स्मरण दिलाने के लिये रखती है कि उसने अभी तक अपने को नहीं ढूंढा है । यदि मृत्यु का घेरा न होता तो प्राणी सदा के लिये एक अपूर्ण जीवन के ढांचे के साथ बंधा रहता । मृत्यु द्वारा पीछा किये जाने पर वह पूर्ण जीवन के विचार के प्रति जागृत हो जाता है तथा उसके साधन और उसकी संभावना की खोज करता है ।      

मृत्यु क्यों होती है –

 प्रत्येक प्राणी के गंभीरतम प्रदेश में अधिक जीवित रहने, विकास करने तथा जीवन को लंबा करने की एक ऐसी आवश्यकता विद्यमान है जिससे कि मृत्यु का संपर्क उन्हें आघात पहुंचाता है और उनमें जुगुप्सा उत्पन्न कर देता है ।    

कुछ में, जो संवेदनशील होते हैं, यह संत्रास पैदा करता है, दूसरों में रोष l व्यक्ति की अपने-आपसे यह पूछने की प्रवृत्ति होती है कि : “यह भयावह, प्रहसन क्या है जिसमें हम बिना   चाहे और बिना समझे हिस्सा लेते हैं ?  यदि मरना ही है तो हम पैदा ही क्यों होते हैं ? प्रगति, उन्नति और अपनी शक्तियों के विकास के लिए किए गये प्रयत्नों से लाभ ही क्या ? यदि इनका अंत ह्रास में, अधोगति और विघटन में होना है ? …  

किंतु महायोगी श्रीअरविन्द हमें बताते हैं कि मृत्यु जड़-तत्व की चेतना में पूर्णता की प्यास और प्रगति की आवश्यकता को जगाने के लिए एक अनिवार्य साधन है l उसके बिना प्राणी जिस अवस्था में है उसी में अनिश्चित समय के लिए संताप किये पड़े रहते ।   

ज्यों ही यह शरीर कुछ उन्नति कर लेता है, बैठ जाने की आवश्यकता क्यों अनुभव करता है ? यह थक जाता है l कहता है –  ओह ! ठहरो, मुझे थोड़ा विश्राम कर लेने दो l” वस्तुत: यही बात है जो उसे मृत्यु की ओर ले जाती है।     

यदि वह अपने में सदा ही और अधिक अच्छा करने और अधिक पवित्र होने और अधिक सुंदर होने और अधिक प्रकाश पूर्ण होने और सदा सर्वदा युवा बने रहने का प्रवेग अनुभव कर सकता तो व्यक्ति प्रकृति के इस भयंकर परिहास से बच सकता।

श्रीमाँ कहती है -

अगर तुम मृत्यु से बच निकलना चाहते हो तो तुम्हें अपने-आपको किसी भी नश्वर वस्तु से नहीं बांधना चाहिये । तुम केवल उसी को जीत सकते हो जिससे तुम भय नहीं खाते, और जो मृत्यु से भय खाता है वह पहले से ही मृत्यु से पराजित हो चुका  है । सच्चा और पूर्ण त्याग है अहं का त्याग । जो कहीं अधिक दुःसाध्य प्रयास है । अगर तुमने अपने अहं को न त्यागा तो शरीर छोड़ देने से तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी ।   

मृत्यु कठिनाइयों का हल नहीं है -

मृत्यु कोई हल नहीं है – बिल्कुल नहीं है । मृत्यु जन्म-मरण के अनंत चक्रों में भद्दे और यांत्रिक ढंग से वापस आना है । जो चीज तुम एक जीवन में सिद्ध नहीं कर पाये उसे दूसरे जीवन में साधारणत: कहीं अधिक कठिन परिस्थितियों में सिद्ध करना होगा ।    

मृत्यु वह बिल्कुल नहीं है जो तुम उसे समझते हो । तुम आशा करते हो कि मृत्यु से निश्चेतन विश्राम की तटस्थ शांति मिलेगी । लेकिन ऐसा विश्राम पाने के लिए तुम्हें तैयारी करनी पड़ेगी ।     

मरकर तुम केवल अपना शरीर ही खोते हो, और उसके साथ ही भौतिक जगत् के साथ संबंध और उस पर क्रिया करने की क्षमता भी चली जाती है; पर भौतिक द्रव्य के समाप्त होने के साथ प्राणमय जगत् की सभी चीजें गायब नहीं हो जाती । तुम्हारी सभी इच्छाएं, आसक्तियां, लालसाएं सभी बनी रहती है और उनके साथ कुंठा और निराशा रहती है और यह चीज तुम्हें अपेक्षित शांति नहीं मिलने देती । शांत और घटना-शून्य मृत्यु का आनंद लेने के लिए तुम्हें तैयारी करनी पड़ेगी । इच्छाओं का उन्मूलन ही एकमात्र प्रभावशाली तैयारी है     

जब तक हमारा शरीर है, हमें क्रियाशील रहना होगा, कुछ काम करना होगा । अगर हम कर्तव्य समझकर परिणाम की लालसा के बिना, उसे ऐसा या वैसा रूप देने की इच्छा के बिना काम करते चले तो हम उत्तरोत्तर अनासक्त हो जाते हैं और इस तरह अपने-आपको विश्रामपूर्ण मृत्यु के लिये तैयार करते हैं ।

जीवन अमर है, केवल शरीर ही विघटित होता है ।

शरीर का अंत चेतना का अंत नहीं है । जो चीज तुम्हें जीते-जी तकलीफ दे रही थी, वह मरने के बाद भी तकलीफ देती रहेगी l जीते जी मन को किसी और दिशा में मोड़ने की जो संभावना रहती है मरने पर वह भी नहीं रहती ।     

किंतु मृत्यु के समय की उसकी मनोवृति पर निर्भर करता है l और यह मनोवृति निश्चित रूप से निर्भर करती है उसके आन्तरिक विकास और उसकी सत्ता के एकीकरण पर । लेकिन अगर शरीर आन्तरिक सत्ता की प्रगतिशील क्रिया का अनुसरण करे, अगर उसके अंदर भी प्रगति और पूर्णता की वही भावना हो जो चैत्य पुरुष में होती है तो फिर उसके मरने की कोई जरूरत नहीं रहेगी । एक के बाद एक बढ़ता हुआ वर्ष, जरूरी नहीं है कि अधोगति ही लाये । यह तो प्रकृति की एक आदत है । यह तो इस क्षण जो हो रहा है उसकी आदत है । और ठीक यही मृत्यु का कारण है । 

मृत्यु के भय पर विजय -

यदि मनुष्य को किसी न किसी कारण अपना शरीर छोड़ने और नया शरीर लेना ही हो तो क्या यह अधिक अच्छा नहीं है कि मृत्यु को कोई वीभत्स पराजय बनाने की जगह कोई भव्य, हर्ष युक्त और उत्साह पूर्ण वस्तु बना दिया जाय ? जो लोग जीवन से चिपके रहते हैं, जो एक या दो क्षण भी अपना अंत रोक रखने के लिये प्रत्येक संभवनीय उपाय से चेष्टा करते हैं, जो तुम्हारे सामने भीषण वेदना का उदाहरण रखते हैं, वे यह साबित करते हैं कि वे अपनी अन्तरात्मा के विषय में सचेतन नहीं है । मनुष्य इस घटना को एक साधन में बदल सकता है ।    

केवल अपनी इच्छा से शरीर छोड़ने के सिवा अन्य किसी चीज से मृत्यु होने से बच सकना, रोग से मुक्त रहना आदि ऐसी चीज हैं जो केवल चेतना के सम्पूर्ण परिवर्तन से ही प्राप्त की जा सकती है और इस परिवर्तन का विकास प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने अंदर करना होगा, इस उपलब्धि के बिना इन चीजों की ओर से कोई स्वतःरक्षण संभव नहीं ।

कभी मृत्यु के लिए इच्छा न करो,कभी मरने का संकल्प न करो,कभी मौत से न डरो। हर हालत में अपना अतिक्रमण करने का (अपने-आपसे श्रेष्ठ बनने का) संकल्प करो ।   

एक साधक ने श्रीमां से प्रश्न किया -

मां ! मृत्यु के समाचार को कैसे लिया जाय, विशेष रूप से यदि किसी नजदीकी रिश्तेदार की मृत्यु का समाचार हो ?    

श्रीमां ने कहा है – परम् प्रभु से कहो, तेरी इच्छा पूर्ण हो और जितना संभव हो सके शांत रहो । अगर जो व्यक्ति गया है वह तुम्हें प्रिय था तो उस व्यक्ति पर अपना प्रेम स्थिरता और शांति में केंद्रित करो l यही चीज गुजरे हुए व्यक्ति की अधिक से अधिक सहायता कर सकती हैं ।   

श्रीमां से एक साधक ने पूछा – क्या बिदा होती आत्मा को प्रसन्नता, शांति तथा सहायता दी जा सकती है ?  

श्रीमां ने उत्तर दिया – हां इसके लिए एक ही रास्ता है, आप बिल्कुल उदास एवं दु:खी न हो। खूब शांत एवं स्थिर रहे। मृतक के प्रति प्रेम पूर्ण भावना रखें। अपने निकट के स्वजन की चिर-बिदाई सारे कुटुंबीजनों के लिए अत्यन्त दु:खदायक और आघात-जनक होती है, इसलिए जहां मृत्यु हुई हो उस घर का समग्र वातावरण शोक और विषाद के आवेगों से परिपूर्ण होता है । जिस आत्मा द्वारा देह त्याग दी जाती है उसके अब भौतिक नेत्र नहीं होते हैं किंतु वह अपने स्वजनों के दु:ख एवं शोक के आवेगों का अनुभव कर सकता है । उस आत्मा को परिजनों के शोक से ऐसा लगता है कि ये सब किसलिए दु:खी हो रहे हैं, क्योंकि आत्मा तो समस्त बंधनों से मुक्त होकर आनंद का अनुभव कर रही होती है l वह अपने भौतिक देह में नहीं है, अत: वह अपनी स्थिति के बारे में कुछ कह नहीं सकती है l उसके स्वजनों का दु:ख, शोक, क्रंदन, उसके प्रति आसक्ति यह सब अब उसकी भावी यात्रा के लिए रुकावट है । उसे ऊर्ध्व मार्ग में ले जाने से रोकते हैं । उसे प्राणमय चेतना के साथ निम्न भूमिका में जकड़ कर रखते हैं इसलिए बिदा लेती हुई आत्मा की बिदाई एवं कल्याण करने के लिए शोक, क्रन्दन, आसक्ति का त्याग कर उसे उर्ध्व मार्ग की ओर प्रयाण करने में, उसे परमात्मा की सहायता मिले ऐसी सतत प्रार्थना करना चाहिए ।      

दिवंगत जीव को सहायता दी जा सकती है अपनी शुभेच्छा द्वारा या यदि किसी को गुह्य साधनों का ज्ञान हो तो उनके द्वारा । एक चीज जो अवश्य नहीं करनी चाहिये वह है दिवंगत जीव के लिए दु:ख या आसक्ति की भावना रखकर उसे पीछे खींचने या ऐसा कुछ भी करना जिससे कि वह पृथ्वी के समीप खींच आये या विश्राम स्थल तक पहुंचने की यात्रा में उसे देरी हो ।   

सामान्य तौर पर इन चीजों से सहायता उसी को मिलती है जो उस चेतना में प्रवेश कर चुका हो जिसमें ये चीजें महज विचार ही नहीं वरन् वास्तविकताएँ  बन जाती हैं l तब व्यक्ति शोक नहीं करता, क्योंकि वह सत्य के अंदर प्रवेश कर चुका है और सत्य ले आता है स्थिरता और शांति ।   

मृत्यु के समय चैत्य पुरुष यह चुनता है कि अगले जन्म में वह क्या सम्पन्न करेगा और वह नये व्यक्तित्व का स्वरूप और उसकी परिस्थितियाँ भी निर्धारित करता है । जीवन अज्ञान की परिस्थितियों में अनुभव प्राप्त करते हुए तब तक क्रमशः प्रगति करते रहने के लिये है जब तक हम उच्चतर प्रकाश के लिये तैयार नहीं हो जाते ।    

मृत्यु के समय जीव मस्तक से होकर शरीर से बाहर निकलता है । वह सूक्ष्म शरीर में निकलता है और अस्तित्व के अन्य लोकों में कुछ समय के लिये जाता है जहां वह अपने पार्थिव जीवन के परिणाम होने वाली कुछ अनुभूतियों में से गुजरता है । पीछे वह चैत्य लोक में पहुंचता है जहां वह एक प्रकार की निद्रा की स्थिति में तब तक विश्राम करता रहता है जब तक कि उसका पृथ्वी पर नया जन्म आरंभ करने का समय नहीं आ जाता । साधारणतया ऐसा ही होता है – किंतु कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो अधिक विकसित होते हैं और वह इस धारा का अनुसरण नहीं करते ।    

मृत्यु के बाद एक ऐसा समय आता है जब मृत व्यक्ति प्राणजगत् में से गुजरता और वहां कुछ समय तक रहता है । इस यात्रा का पहला भाग ही  संकटपूर्ण या कष्टदायक हो सकता है; बाकी यात्रा में तो जीव अपने जीवन काल की प्राणिक कामनाओं या प्रवृत्तियों के अवशिष्ट अंश को विशेष परिवेश में नि:शेष करता है । जैसे ही वह इन सबसे क्लांत हो जाता है और इनसे परे जाने में समर्थ हो जाता है, वैसे ही उसका प्राणिक कोष खिसक पड़ता है । इसके बाद जीव को कुछ मानसिक अवशिष्टांशों से मुक्ति पाने के लिये कुछ समय की आवश्यकता होती है और ऐसा होने पर वह चैत्य जगत् में जाकर विश्राम लेता है । जब तक पृथ्वी पर अगला जीवन धारण करने का समय नहीं आ जाता तब तक वह वहीं रहता है । 

एक और चीज l पुनर्जन्म और प्राथमिक महत्व की चीज व्यक्तित्व नहीं, चरित्र नहीं, वरन् चैत्य पुरुष है जो प्रकृति के क्रमविकास के पीछे विद्यमान रहता और उसके साथ-साथ विकसित होता रहता है । चैत्य पुरुष जब शरीर से प्रस्थान कर जाता है, अपने विश्राम स्थल के मार्ग में जब मन और प्राण के कोषों को भी उतार देता है, तब भी वह अपने साथ अपने अनुभव के सार-मर्म को ले जाता है – भौतिक घटनाओं को नहीं, प्राणिक गतियों को नहीं, मन की रचनाओं को नहीं, सामर्थ्य या चरित्र को नहीं, वरन् उनसे जो सार तत्व उसने एकत्र किया था जिसे भागवत तत्व की संज्ञा दी जा सकती है, जिसके लिए बाकी सब कुछ का अस्तित्व था, उसको साथ ले जाता है l यही चीज स्थायी कमाई है और यही भगवान की ओर बढ़ने में सहायक होती है l जब वह चैत्य लोक में प्रवेश करता है तब अपने अनुभवों के सार को आत्मसात् करना आरंभ करता है और भावी चैत्य व्यक्तित्व का निर्माण इस आत्मसात्करण द्वारा, पूर्वकृत निश्चय से के अनुसार होता है । यह आत्मसात्करण पूरा होने पर वह नये जन्म के लिये तैयार हो जाता है ।    

जीव या अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष और विशुद्ध आत्मा इन दोनों के अंतर को स्पष्ट समझ लेना आवश्यक है l विशुद्ध आत्मा अजन्मा  होता है, जन्म या मृत्यु में से नहीं गुजरता, जन्म या शरीर, मन या प्राण या इस अभिव्यक्त प्रकृति से स्वतंत्र होता है l यद्यपि वह इन सबको धारण करता है और अवलम्ब देता है फिर भी वह इनसे बंधता नहीं,  सीमित नहीं होता, प्रभावित नहीं होता l दूसरी ओर, अन्तरात्मा वह है जो जन्म में उतर आता और मृत्यु द्वारा किंतु स्वयं उसकी मृत्यु नहीं होती, क्योंकि वह अमर है – एक अवस्था से अन्य अवस्था में जाता है, पृथ्वी लोक से अन्य लोकों में जाता है और फिर पार्थिव जीवन में वापस आ जाता है । अन्तरात्मा इस प्रकार जीवन- जीवन प्रगति करता हुआ विकास क्रम के मार्ग पर आगे बढ़ता है, जो उसे मानव स्तर पर पहुंचा देता है और इन सब के बीच वह एक अपनी सत्ता का निर्माण करता है, जिसे हम चैत्त्य पुरुष कहते हैं जो विकास क्रम को आलम्बन देता है ।  

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येSस्य हृदि श्रिताः ।

अथ मर्त्योSमृतो  भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते … ।। 

– कठोपनिषद् २.३.१४   

जब ह्रदय से चिपकी रहने वाली सभी कामनाएं उससे छूट जाती हैं तब मर्त्य भी अमर हो जाता है और वह यहाँ भी शाश्वत (ब्रह्म) को अधिकृत करता है। सोSहमस्मि – मैं वही हूँ ।… मैं वही हूँ ।… मैं वही हूँ ।…

“सावित्री” महाकाव्य से –

यद्यपि मृत्यु जीवन-पथ पर हमारे संग-संग चलती है, और मनुष्य के नि:सार कार्यों का अंतिम निर्णायक है, मृत्यु एक सोपान है, एक द्वार है,एक लड़खड़ाती लंबी फांद है,  जो आत्मा को जन्म से जन्म में पार ले जाने के लिये लगानी पड़ती है । 

एक खिन्नताप्रद पराजय है, जिसके गर्भ में विजय छिपी है, एक चाबुक है जो  हमें हमारी अमर अवस्था की ओर तेजी से चलाता है ।  

- श्री अरविन्द

मृत्यु है अमरता का द्वार l मृत्यु है शाश्वत की खोज का साधन । मृत्यु है सामान्य जीवन को दिव्य जीवन तक विकसित करने की सीढ़ी ।

मृत्यु है परम् का स्पर्श-साधन । 

परा ‘ज्योति’ से हम उसमें आये हैं ‘ज्योति’ के द्वारा हम जीते हैं और ‘ज्योति’ की ओर ही हम जाते हैं ।  हे प्रभु ! इस विकट अवरोध के आवरण को 

तू ही हटा सकता है तू ही केवल तू ही। ओ ज्योतिर्मय, ओ अमर आनंद, ओ मधुर शांति । विज्ञान भी यह विश्वास करता है कि एक दिन मृत्यु स्थूल उपाय से जीता जा सकता है ।

श्री माँ ने कहा है – एक दिन अवश्य आएगा जब प्रेम इस जगत् को मृत्यु से मुक्त कर देगा ।  

उपनिषद् कहता है -

अविद्यया मृत्युं तीर्त्या विद्ययाऽमृतमश्रुते । 

विनाशेन मृत्युं तीर्खा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ।।

अविद्या के द्वारा वे मृत्यु के पार चले जाते हैं और 

विद्या (ज्ञान) द्वारा अमरता प्राप्त करते हैं……… 

‘अजन्म’ के द्वारा वे ‘मृत्यु’ को पार करते हैं और 

‘जन्म’ द्वारा अमरता का रस लेते हैं ।

ईशोपनिषद् ११.१४ 

असतो मा सदगमय (असत् से सत् की ओर),

तमसो मा ज्योतिर्गमय (तम से ज्योति की ओर),

मृत्योर्माSमृतं गमय  (मृत्यु से अमृत की ओर) l 

ॐ शांति: शांति: शांति: ॥

क्या यही अन्त है

जब तक वह सब पूर्ण न हो जाए जिसके लिए बने थे सितारे, जब तक हृदय भगवान को खोज न ले और आत्मा स्वयं को न पहचान ले। और तब भी कोई नहीं है अन्त।

कविता का लघु अंश - श्री अरविन्द