Daily Quotes

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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.

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भोजन - अन्नं ब्रह्म

मानव शरीर का ईश्वर प्रदत्त भौतिक आहार
भोजन में भगवान की पूजा करें, अपमान न करें।

भोजन के पूर्व प्रार्थना 

हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिर्अन्नं प्रजापतिः l

हरिर्विप्रशरीरस्तु भुंक्ते भोजयते हरि: ll

भावार्थ :- हे प्रभु ! सब प्रकार के भोजनों के दाता आप ही हैं और आप ही उसे ग्रहण करने वाले हैं l हे प्रभु ! आप स्वयं ही अन्न हैं l मनुष्य के शरीर में भगवान स्वयं ही भोजन ग्रहण करने वाले तथा भोजन कराने वाले हैं l हे प्रभु ! सब कुछ तेरा ही है और तुझको ही समर्पित है l 

      

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्माणाहुतम् ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ।। 4 ।। 24 ।। गीता

अर्थात्:- भोजन रूपी यज्ञ में अर्पण (अर्पण करने का साधन अर्थात् श्रुवा) भी ब्रह्म है और हवन की सामग्री (अर्थात् भोजन) भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप अग्नि (जठराग्नि) में आहुति (ग्रास) देने वाला कर्ता भी ब्रह्मरूप है – आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म है। इस प्रकार ब्रह्म कर्म में स्थित पुरूष को प्राप्त होने वाला फल भी ब्रह्म है।

श्रीमाँ – श्रीअरविंद के प्रकाश में

प्रकृति की रचनाएँ अदभूत और अलौकिक है। जो मनुष्य प्रकृति के विधान से चलते हैं, वे स्वस्थ और आनंदमय जीवन जीते हैं।

  • अन्न से समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं।  
  • उत्पन्न होकर अन्न के द्वारा जीवित रहते हैं।  
  • अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं।  
  • अन्न में सूर्य की शक्ति का प्रकाश और शक्ति है।  
  • जो मानव को पुष्ट, ऊर्जावान तथा ज्योतिर्मय बनाती है।  
  • बशर्ते की मानव अन्न को भगवान के रूप में ग्रहण करें।
  • अन्नं ब्रह्म।  
  • अन्न स्वयं ब्रह्म का रूप है।  
  • भोजन में भगवान की पूजा करो। भोजन का अपमान मत करो।  

भोजन संतुलन

बहुत अधिक खाने से शरीर जड़ और भारी हो जाता है, बहुत कम खाने से कमजोर और शीघ्र ही घबराने वाला। व्यक्ति को भोजन और शरीर की आवश्यकताओं में सच्चे तालमेल का पता लगाना चाहिए ।

-  श्री अरविन्द 

  • भोजन शरीर की आवश्यकता है केवल रसना या पेट की भूख नहीं।
  • स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए और आवश्यक शक्ति पैदा करने के लिए भोजन जरूरी है।  
  • भोजन हमें जिन्दा रखता है, तो हमें मारता भी है।  

भौतिक रूप से, हम जीने के लिये भोजन पर आश्रित हैं। यह दुर्भाग्य की बात है, क्योंकि हम हर रोज भोजन के साथ हमेशा बहुत-सी निश्चेतना, तमस्, भारीपन और मूढ़ता आत्मसात् करते हैं। इससे तभी बच सकते हैं जब हम पूरी तरह जागृत हों, हमेशा सावधान हों और जैसे ही कोई तत्व हमारे अन्दर प्रवेश करे, वैसे ही हम उस पर क्रिया करना शुरू करें, जिससे उसके प्रकाश को ही ग्रहण करें और चेतना को धुंधला बनाने वाले सभी तत्वों को त्याग सकें। भोजन करने से पहले भगवान् का भोग लगाने की धार्मिक प्रथा का यही मूल कारण और युक्तियुक्त व्याख्या है। जब आदमी खाये तो यह अभीप्सा करे कि वह भोजन छोटे-से मानव-अहं के लिये नहीं, बल्कि अपने अन्दर बसने वाली दिव्य चेतना के लिये नैवेद्य हो। सभी योग-प्रणालियों में, सभी धर्मों में इस बात को प्रोत्साहन दिया गया है। भोग लगाने की प्रथा का यही मूल है। यह पीछे रहने वाली चेतना के साथ सम्पर्क बनाने का उपाय है। इसका उद्देश्य है, हमारे जाने बिना हमेशा दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए अवचेतना के समावेश को कम करना ।

- श्री माँ

यह भोजन के अंदर बसने वाली भगवान की चेतना के साथ संपर्क बनाने का तरीका है। 

  • भोजन बनाते या करते समय हम मनोभाव की जिस निम्न या उच्च स्थिति में होते हैं वही प्रकम्पन हमारे अन्दर निर्मित होकर अन्दर प्रवेश करते हैं । उदाहरण – हम क्रोध में हैं, क्रोध प्रवेश होगा ; हम शांत हैं शांति प्रवेश होगी ।  
  • भोजन तैयार करना एक श्रमपूर्ण कार्य है।
  • घर का बना ताजा भोजन ही स्वास्थ्य वर्धक एवं गुणकारी होता है, जो शरीर को सौन्दर्यवान, मन को शांत और प्रकाशमान बनता है । 
  • भोजन बनाने के पूर्व गृहणियाँ भगवान की शक्ति का स्मरण और आव्हान करे। 
  • ह्रदय में अपने इष्ट का स्मरण करते हुए भागवत चेतना के साथ एक होकर प्रेम भाव से भोजन बनायें । 
  • भोजन तैयार करते समय नकारात्मक मनोभावों, चिंता, तमस, निश्चेतना, क्रोध, आलस्य हमारी चेतना को धुंधला बना देता है । इसके स्थान पर प्रसन्नता और आनंद लायेँ। 
  • सचेतन रूप से तैयार किया गया भोजन हमारे अन्दर भगवान के प्रकाश, शक्ति, ऊर्जा, प्रेम, शांति, तृप्ति और आनंद की अनुभूति प्रदान करेगा। 
  • भोजन स्वच्छता और सुंदरता से बनायें। 
  • सुंदरता से रखें और परोसें। 
  • भोजन पकाने वाले को मानव शरीर की आवश्यकता, वैज्ञानिक जानकारी, वैज्ञानिक संयम के सिद्धांत का पूरा पालन करना चाहिये ।
  • प्राकृतिक भोजन शरीर की ऊर्जा और सौन्दर्य में वृद्धि करता है। भोजन में 80% फल-सब्जियाँ तथा 20% प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा युक्त पदार्थ होना चाहिये। 
  • भगवान हमारे अंदर भोजन पका रहे हैं और सब रूपों में वे ही ग्रहण करेंगें। 
  • यह दिव्य मनोभावना सभी के अंदर रूपान्तरण की शक्ति को जागृत करने में सहायक होगी।

भोजन के प्रति भाव

अपने मन को भोजन के बारे में व्याकुल मत करो। ठीक मात्रा में खाओ, न बहुत ज्यादा न बहुत कम । लोभ या अरुचि के बिना, शरीर के पोषण के लिए माताजी के द्वारा दिये गये साधन के रूप में, सच्ची भावना के साथ अपने अन्दर बसे भगवान् को अर्पण करते हुए खाओ, तब वह तमस् पैदा न करेगा ।

-  श्री अरविन्द 

  • सर्वप्रथम भोजन सामने रखें । भोजन ग्रहण करने के पूर्व भगवान की शक्ति का ध्यान तथा आव्हान करें।
  • भोजन के पूर्व शांति-मंत्र का जप भोजन को पचाने में आश्चर्यजनक सहायता देता है।
  • हम शरीर के अन्दर एकाग्र होकर भोजन करने की आदत डालें, इस तरह हम भोजन की क्रिया को अनुभव करने की शक्ति का विकास कर सकते हैं । ऐसा करने से भोजन की क्रिया का एक अलग अनुभव होता है।  
  • भोजन अच्छी तरह चबा-चबाकर, पूर्णशांत चित्त होकर एकाग्रता से करें। 
  • भोजन नियत समय पर शांत से, स्थिर मन से, सम्यक भावना, प्रकृतिस्थ तथा सत्य चेतना के साथ एक होकर ग्रहण किया जाये। 
  • शांत मन से किया गया भोजन आत्म-तृप्ति देता है। 
  • चेतना के रूपांतर में सहायक होता है।
  • शरीर के लिए कौन-सा भोज्य पदार्थ अनुपयोगी या उपयोगी है, इसके प्रति जागरूक रहना चाहिए । इस आदत से हर कर्म के प्रति हमारी सजगता जागृत होती है। 
  • प्रत्येक को सुरुचिपूर्ण, संतुलित, सात्विक, ताजे पौष्टिक तथा प्राकृतिक भोजन करने की रुचि विकसित करनी चाहिये। 
  • भूख लगने पर ही भोजन करें। दिन में बार-बार न खायें। प्रत्येक बार खाने में 4 घंटे का अंतर रखें। 
  • भूख से थोड़ा कम खायें। बार-बार खाने से चया-पचय के अंग खराब हो सकते है।
  • बहुत ज्यादा भोजन खाने से भोजन पचाने की चिंता बनी रहती है । 
  • हमारी इन्द्रियों को सुरुचि की शिक्षा, संस्कार देना, बौद्धिकता के रंग में रंगना, ज्ञान, गुण-दोष विवेचन, रूचि पैदा करना आदि आवश्यक है । किन्तु कुल मिला कर हमारी चेतना में प्रगति हो यह महत्वपूर्ण है न कि इन्द्रियों के विषय में लिप्त होना । 
  • जिस मनुष्य के अन्दर भोजन के प्रति आसक्ति होती है उसे भोजन संबंधी विचार आते रहते हैं। अतः सावधानी पूर्वक विवेकशील वृत्ति का विकास करने की शक्ति जागृत करना चाहिये अन्यथा मनुष्य का मन युद्ध का क्षेत्र बन जाता है – दिन भर भोजन के विचार आते रहते हैं - क्या खाऊँ, क्या न खाऊँ, कैसे खाऊँ, कैसे न खाऊँ आदि । ये विचार बड़े घातक है । 
  • आंतरिक प्रगति करके ही मनुष्य इन सब चीजों से छुटकारा पा सकता है । साधना द्वारा वह चेतना के एक ऐसे स्तर पर ऊपर उठ सकता है जहाँ से वह सब चीजों को ऊँचाई से देख सकता है ।
  • भोजन ग्रहण करने में स्वाद और आसक्ति पर प्रत्येक का अधिकार होना चाहिये । एक है - अनासक्त होकर विचार करें कि भोजन शरीर की मुख्य अवाश्यकता है, रसना और प्राणिक संतोष का कोई महत्व नहीं है । दूसरा है – भोजन को बिना चाह के स्वीकार करना, जो भी भोजन परोसा जाये उसमें समान रूप से रस लिया जाये ( लोग उस भोजन को अच्छा या बुरा कुछ भी कहे ) वास्तव में यह रस स्वयं उस भोजन का नहीं, बल्कि जो उसे सत्य चेतना में ग्रहण करता है वह उसके अन्दर और बाहर सब जगह फैले आनंद का होगा । 
  • भोजन स्वास्थ्य विज्ञान का प्रश्न है । प्राचीन धर्मों में दिए गये बहुत से भोज्य पदार्थ और उनके विधि-निषेधों के पीछे आध्यात्मिक नहीं, स्वास्थ्य संबंधी निर्देश थे । उदाहरण के लिए बासी या बिगड़ी चीजें जिनका सत्व जा चुका है तामसिक होती है, जो चीजें बहुत कटु और तिक्त होती है वे रक्त को गरम करती है, स्वास्थ्य को बिगाड़ती है और राजसिक भी होती है ।
  • रोचक और स्वास्थ्यकर चीजें सात्विक होती हैं । भोजन का असर स्वयं उसकी अपेक्षा उसके साथ आने वाले गुह्य वातावरण और प्रभावों पर निर्भर होता है । मनुष्य अपनी चेतना में समानता, समरसता पैदा करके उसके सही उपयोग का ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
  • शरीर को भोजन की जरुरत है, जब हम इस मनोभाव से भोजन ग्रहण करते हैं तब शरीर आवश्यकता पूरी होने पर अन्दर से संकेत देता है कि बस अब और भोजन की आवश्यकता नहीं है । बिना लोभ के रूचि पूर्वक शरीर के पोषण की आवश्यकता के साधन के रूप में सच्ची भावना से किया गया भोजन ही तृप्ति और संतुष्टि देता है । यह अमृत तुल्य होता है ।      
  • किन्तु जब हमारे अन्दर प्राण में कुछ इच्छाएँ होती है या किसी वस्तु से विशेष प्रेम होता है, तब हम आवश्यकता से अधिक खा जाते हैं, यही है शरीर पर खुला अत्याचार और उसकी नैसर्गिक, स्वाभाविक बोध-शक्ति को खो देते हैं । 
  • टी॰वी॰ तथा हिंसा के दृश्य देखकर भोजन न करें। 
  • भोजन करते समय पानी पीने से जठरगिन्न मंद पड़ जाती है।  
  • भोजन करते समय आवश्यक हो तो 3-4 घूंट पानी पीयें ।
  • प्रत्येक व्यक्ति अपनी धुन में भोजन पकाता और खाता है। 
  • अनजाने विचारों का बहुत बड़ा भाग जिसमें चिंता-तनाव के स्पंदन होते हैं। भोजन के साथ अंदर चले जाते हैं। जो मन, प्राण और शरीर के लिए घातक होते है। 
  • अवचेतन मनोभाव से या बिखरी हुई चेतना में भोजन ग्रहण करने से भोजन के साथ हमेशा बहुत-सी नकारात्मक चीजें अंदर चली जाती है। इससे शरीर में भारीपन आता है । हमें सदैव बीमारी होने का संदेह बना रहता है ।
  • भोजन करते समय सावधान हो जाओ। सचेतन रहो।
  • क्या निरर्थक सोच रहे हो? 
  • अंदर देखो। विचारों का घमासान युद्ध और तुम भोजन कर रहे हो ! भोजन के साथ तुम्हारे अंदर नकारात्मक विचारों की शक्तियाँ प्रवेश कर रही है। 
  • यह तुम्हारा क्रोध हो सकता है या लोभ, ईर्ष्या, पेटू-पन, लड़ाई-झगड़ा, मार-काट के भाव आदि। 
  • ये सब तुम्हें बीमार कर देने वाले तुम्हारे ही मनोभाव है। 
  • अतः ठहरो । तत्काल रुक जाओ।
  • शांत हो जाओ। भगवान को पुकारो। स्मरण करो। 
  • प्रार्थना करो। हे प्रभु। मेरी चेतना को धुंधला बनाने वाले विचारों से मुझे मुक्त करो। 
  • शांति मंत्र का स्मरण करो। ॐ शांति_ _ शांति_ _शांति 
  • थोड़ा – पानी पी लो। 
  • अब भोजन को अमृत की तरह ग्रहण करो। 
  • मूत्र त्याग अवश्य करे। 
  • 10 मिनिट वज्रासन में बैठे। 
  • जल आधा घंटा बाद पीये। 
  • फ्रिज का पानी, ठंडी वस्तुएं न खायें। 
  • एक घंटा मेहनत का कार्य न करे। 
  • भोजन का पचना शरीर के लिए महत्वपूर्ण तथा परिश्रम का कार्य है। 
  • भोजन पेट में पहुँचते ही सारी शक्तियाँ उसके पाचन में लग जाती है। 
  • जरूरत से ज्यादा खाने से शिथिलता आती है। 
  • भोजन के पूर्व स्फूर्ति रहती है । कम भोजन करने से यह बनी रहती है।
  • प्रकृति के विपरीत भोजन खाने से। 
  • भोजन में सभी पोषक तत्वों का न होना। एक ही प्रकार का भोजन खाने से। 
  • भोजन के बारे मे व्याकुल मन के कारण। 
  • सूर्य का सेवन न करने अर्थात् विटामिन D के अभाव से।   
  • अनावश्यक तथा बहुत अधिक खाने से शरीर जड़ और भारी हो जाता है। 
  • कम खाने से कमजोर और शीघ्र ही घबराने वाला। 
  • लोभ से खाने से। 
  • फलाहार की जगह फरियाल करने से। 
  • मन की धारणाओं और प्राण की इच्छाओं के अधीन भोजन करना। इस कारण चेतना का बहुत बड़ा भाग भोजन को पचाने और आत्मसात करने में लगा रहता है। 
  • इससे एकाग्रता और आंतरिक प्रगति अवरोध आता है। मांस-मदिरा, चाय-कॉफी, गरिष्ठ, तला हुआ भोजन, मैदा, शक्कर, फास्ट-फूड, डिब्बा बंद भोजन, कृत्रिम रंग वाले भोज्य पदार्थ तथा तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट, पान-मसाला, नशीली वस्तुएं मंद विष तुल्य है । इनका सेवन करने से हमारी इच्छाशक्ति, स्मरणशक्ति तथा स्वास्थ्य का ह्रास होता है । यह आदत शरीर की नैसर्गिक पाचन क्षमता को समाप्त कर सकती है। अतः इसे त्याग दें। व्यसन की दासता, अवचेतन होकर भोजन करने से मनुष्य जल्दी ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है ।

अल्जीरिया में एक सैनिक अफसर ने एक बन्दर पाल रखा था । बन्दर उन्हीं के साथ रहता था । एक दिन सैनिक के मन में यह भद्दा ख्याल आया कि बन्दर को शराब पिलाई जाये । बन्दर के सामने शराब रखी गई । बन्दर ने देखा सब गिलास उठाकर शराब पी रहे हैं, उसने भी शराब का गिलास उठाया और चटपट खाली कर दिया, किन्तु थोड़ी देर बाद ही वह बहुत तीव्र पीड़ा का शिकार हो गया । वह मेज के नीचे लौटकर कराहने लगा, वह इतना बीमार हो गया कि जैसे बस मरने वाला हो, लेकिन कुछ दिन में वह ठीक हो गया ।

एक दिन पुनः सभी अफसर खाने की मेज पर बैठे थे । अफसरों ने एक-एक करके   बंदर के सामने फिर से शराब का गिलास रखा । बंदर ने सैनिक को गुस्से से भरकर देखा और  गिलास उठाकर उसके सिर पर दे मारा, जिसने उसे शराब दी थी । बन्दर ने प्रमाणित कर दिया कि वह मनुष्यों से ज्यादा बुद्धिमान है । 

बहुत छोटी अवस्था से बच्चों को छोटी - छोटी बातें सीखाकर उन्हें अपनी प्रकृति तथा बुद्धि का स्वामी बनाना चाहिये ।

  • आहार विशेषज्ञ से सलाह लें। 
  • शरीर की आवश्यकता को जानें। 
  • स्वास्थ्य- संबंधी आहार-विज्ञान की जानकारी अवश्य होनी चाहिये। 
  • भौतिक शरीर की क्रियाओं और अंतः शक्तियों के पोषण और नवीनीकरण के लिये प्रकृति ने एक तरीका चुना है और वह है –
  • भोजन का पाचन, परिपाचन और जो पाचन योग्य न हो उसका निष्कासन। 
  • कभी कभी सप्ताह में एक – दो बार, एक दो समय के लिए भोजन नहीं करना, कम करना, फलाहार या रसाहार करने से भी आतों के आराम मिलता है । 
  • श्वांस-प्रश्वांस। 
  • खेल तथा व्यायाम। 
  • आसन, प्राणायाम। 
  • प्रत्याहार, एकाग्रता, ध्यान। 
  • उचित और सच्ची नींद । अर्थात् नींद को यौगिक विश्राम की तरह लें ।
  • भौतिक शरीर की क्रियाओं और अंतः शक्तियों के पोषण और नवीनीकरण के लिये प्रकृति ने एक तरीका चुना है और वह है –
  • भोजन का पाचन, परिपाचन और जो पाचन योग्य न हो उसका निष्कासन। 
  • कभी कभी सप्ताह में एक – दो बार, एक दो समय के लिए भोजन नहीं करना, कम करना, फलाहार या रसाहार करने से भी आतों के आराम मिलता है । 

वह बाहर से सब क्रियाएँ सतत नियमित करता चला आ रहा है । किंतु आंतरिक चेतना या तो सोयी पड़ी है या अर्धजागृत है या पूर्ण जागृत करने की दिशा में उसने कदम नहीं उठाया है । 

  • मानव में प्राण शक्ति एक अद्भूत चीज़ है। 
  • आदमी खाये बिना भी बहुत-सी शक्ति खींच सकता है। 
  • और प्रायः उपवास से प्राण शक्ति बढ़ती है लेकिन भौतिक पदार्थ एक और ही कोटी की चीज़ है जिसके बिना जीवन का आधार खो जाता है । 
  • श्रद्धा से भरा उपवास भूख पर नियंत्रण करना सीखाता है। साथ ही शरीर और मन को भी पवित्र करता है, आंतरिक तथा बाह्य प्रगति में सहायक होता है। 
  • अधिक उपवास शरीर में असंतुलन पैदा करता है। 
  • कभी-कभी कम भोजन करने से प्राण-शक्ति बढ़ती है। 
  • उपवास करो और मुड़-मुड़कर यह सोचो कि हाय भूख लग रही है। क्या खाऊँ? या उपवास के बाद क्या खाऊँगा?
  • मुझे यह खाने को नहीं मिला। 

एक स्वाभाविक उतेजना, चिड़चिड़ापन तथा आंतरिक असंतुलन आता है।

  • भोजन से परहेज करने से ही तुम आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर लेते। 
  • प्रगति होती है – मुक्त होने से। केवल भोजन के लिये सब प्रकार की आसक्ति, कामना, तल्लीनता से मुक्ति नहीं बल्कि भोजन संबंधी सभी आवश्यकताओं से भी मुक्त होना चाहिए । तभी एक स्वाभाविक और सहज परिणाम के रूप में उपयोगी रूप में उपवास किया जा सकता है ।
  • भोजन छोड़ देने का विचार एक गलत प्रेरणा है । तुम कम भोजन से काम चला सकते हो लेकिन एकदम भोजन के बिना नहीं रह सकते । ऐसा अपेक्षया थोड़े समय के लिए हो सकता है । याद रखो  गीता में कहा गया है – “ योग उसके लिये नहीं है जो बहुत अधिक खाता है और उसके लिये भी नहीं है जो एकदम खाना छोड़ देता है ।  
  • मनुष्य भोजन का दास बना हुआ है। सारे समय अधिकांश मनुष्य यही सोचते रहते हैं कि कैसे पायें? क्या खायें ? इस लोभी मनोवृति से बाहर निकलने के लिये उपवास करना आवश्यक है । 
  • बशर्ते कि मन अनासक्त रखेँ। 
  • मानव के चारों ओर वैश्व प्राणिक ऊर्जा फैली रहती है। जो मनुष्य एकाग्रचित, सचेतन, अपनी प्रकृति को बदलने के लिये तैयार होते हैं। इस वैश्व ऊर्जा को अपने अंदर खींचना और आत्मसात करना जानते हैं। 
  • सारे समय जाग्रत रहते हुए और योग में केंद्रित होने के कारण लंबा उपवास करते हुए भी वह अपने सारे कर्म बिना थकान के कर लेते हैं। 
  • एक बार भगवान से अंदर ऐक्य की उपलब्धि हो जाये, तो क्या खाना, या न खाना, सोने या न सोने का कोई महत्व नहीं रह जाता। 
  • आंतरिक शांति, सत्य तथा आनंद में जीने के कारण उसे अंदर से सतत ऊर्जा मिलती रहती है। 
  • जो शरीर को लचीला और नमनीय बनाती है। सतत अनुकूल क्षमता भी देती है। 
  • एक स्थिति ऐसी आती है। भोजन मिले तो वह खा लेता है किंतु उसके बारे में सोचता नहीं। 
  • नींद आये तो सो जाता है किंतु उसके बारे में सोचता नहीं है।
  • मानव अपनी प्रकृति और चेतना का रूपांतर कर परम प्रभु के साथ एक हो जाये।
  • इस प्रकार मानव का शरीर लचीला, नमनीय, तेजोमय तथा चमकीला होगा।  
  • व्यक्ति अन्दर से संयत, संतुलित, धैर्यवान, शांत रहे इसके लिए एकमात्र प्रभावकारी वस्तु है चेतना का परिवर्तन । 
  • अतिमानसिक शक्तियों के स्पंदन के साथ घनिष्ठ, सतत, निरपेक्ष और अनिवार्य एकत्व आवश्यक है तब हर क्षण तन्मयता का, सत्ता के हर तत्त्व के संकल्प का, शरीर के एक एक-एक कोषाणु के साथ सम्पूर्ण सत्ता की अभीप्सा का लक्ष्य होगा – भागवत शक्ति , ज्योति, सत्य, सामर्थ्य और अनिर्वचनीय आनंद के साथ सच्चा एकत्व प्राप्त करने की भावना । 
  • प्रभु के साथ सतत सच्चा एकत्व ही मनुष्य के अन्दर सहज और स्वाभाविक रूप से दिव्यत्व को अभिव्यक्त करेगा । 
  • इस तरह मानव शनै: शनै: रूपांतरित होकर अतिमानसिक सत्ता और विश्व में प्रभु की लीला का साधन बन जायेगा ।       
बच्चों को केवल वहीं भोजन दिया जाये जो स्वास्थ्य को ठीक रखने और आवश्यक शक्ति पैदा करने के लिये जरूरी है। इसलिये इस बारे में बहुत सावधानी रखी जाये कि भोजन को दबाव या दण्ड का साधन न बनाया जाये। बच्चे से यह कहने की आदत बहुत अनर्थकारी है कि तुम अच्छे बच्चे नहीं बने, इसलिये तुम्हें फलानी चीज नहीं मिलेगी। इस तरह तुम बच्चे में यह भावना पैदा करते हो कि भोजन मुख्य रूप से उसके लोभ को सन्तुष्ट करने के लिये दिया जाता है, इसलिये नहीं कि वह उसके शरीर के ठीक काम करने के लिये जरूरी है ।
- श्री माँ


  • बच्चे को सावधानी से यह शिक्षा दी जानी चाहिये कि उसकी इच्छा और आवश्यकताओं में क्या फर्क है । उसमें ऐसा भोजन करने की रूचि विकसित करनी चाहिये जो सादा और स्वास्थ्यकर, पौष्टिक और स्वादिष्ट हो । उसमें व्यर्थ की चीजें न हो ।
  • सार रूप में बालक को भोजन केवल लालच, आसक्ति या उसकी इच्छा की संतुष्टि के लिये न दिया जाये बल्कि भगवान की शक्ति को ग्रहण करने के लिए दिया जाए । 
  • प्रत्येक बच्चे को अपने बच्चे की शारीरिक स्थिति, स्वास्थ्य, स्वभाव और क्षमता के अनुसार चुनकर भोजन बनाकर देना चाहिये ।
  • बच्चे को भूख के अनुसार खाना सीखना चाहिये, न ज्यादा न कम । बालक भोजन को लोभ व पेटूपन से न खाये ।  बचपन से ही उसे शरीर की शक्ति और स्वास्थ्य की दृष्टि से भोजन करना सिखाया जाये न कि रसना के सुख के लिये ।
  • बच्चे को नियत समय पर, विवेकपूर्ण तरीके से, शांति से, स्थिरता से भोजन करने की आदत डाली जाये । 
  • दिव्य भावना से किया गया - ताजा, पौष्टिक, संतुलित एवं सुपाच्य भोजन बालक का सर्वोतम अमृत तुल्य आहार है ।
स्वास्थ्य है तो जीवन जीने का आनंद है, स्वास्थ्य नहीं है तो जीवन बोझिल हो जाता है । - सुमन कोचर

श्री-माँ भोजन के बारे में

२३ फरवरी, १९५५

यह वार्ता योग के आधार‘, अध्याय चार : कामना-भोजन- कामवासनापर आधारित है।

 

मधुर मां, शुरू से ही आदमी खाता आया है, क्योंकि जीने के लिए उसे पोषण की जरूरत है। तब फिर, भोजन के लिए स्वाद क्यों आया? हम वही खाते हैं जो हमें अच्छा लगता है, और जो अच्छा नहीं लगता उसे नहीं खाते !

 

मेरा ख्याल है कि आदिम मानव जानवर के बहुत नजदीक था और वह अधिकतर बुद्धि की अपेक्षा सहज बोध के आधार पर जीता था, समझे। उसे जब भूख लगती थी तो खा लेता था, उसके लिए कोई, किसी प्रकार का नियम न था। शायद उसके भी अपने स्वाद और अपनी पसन्दें रही हों, हम इसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानते। लेकिन वह बहुत अधिक भौतिक स्तर पर जीता था, आज की अपेक्षा मन और प्राण में बहुत कम। निश्चय ही, आदिम मानव बहुत अधिक भौतिक था, जानवर के बहुत करीब। जैसे-जैसे शताब्दियां बीतती जाती हैं, मनुष्य ज्यादा मानसिक और प्राणिक होता जाता है; और जैसे-जैसे वह अधिक प्राणिक और मानसिक होता जाता है, स्वभावतः, सुरुचि सम्भव होती जाती है, बुद्धि का विकास होने लगता है पर साथ-ही-साथ भ्रष्टता और विकृति की सम्भावना भी बढ़ती जाती है। देखो, इसमें भेद है कि हम अपनी इन्द्रियों को इस हद तक प्रशिक्षित कर सकें कि उनमें हर तरह की सुरुचियां, विकास, ज्ञान, मूल्यांकन की सब सम्भावनाएं, स्वाद आदि, सब कुछ आ जाये – सचमुच जो चेतना का विकास तथा उसकी प्रगति है उसमें, और आसक्ति या चटोरेपन में भेद है।

 

उदाहरण के लिए, तुम स्वाद का बहुत गहरा अध्ययन कर सकते हो और चीजों के विभिन्न स्वादों का, विचारों और स्वाद के परस्पर सम्बन्ध का विस्तृत ज्ञान पा सकते हो, ताकि शुद्ध रूप से प्राणिक विकास नहीं, बल्कि इन्द्रियों का पूर्ण विकास सिद्ध कर सको। इसमें और उन लोगों में बहुत फर्क है जो लालच के मारे खाते हैं, और सारे समय खाने के बारे में ही सोचते रहते हैं। उनके लिए खाना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण काम है; उनके सारे विचार उसी पर केन्द्रित होते हैं, वे खाते हैं तो खाने की आवश्यकता के कारण नहीं, बल्कि कामना, लालच और चटोरेपन के कारण।

 

वास्तव में, जो लोग अपने स्वाद को विकसित करने के लिए, उसमें सुरुचि लाने की कोशिश करते हैं उनमें ऐसे बहुत ही कम होते हैं जो खाने से बहुत अधिक आसक्त हों। वे भोजन के प्रति आसक्ति के कारण ऐसा नहीं करते। वे यह सब करते हैं अपनी इन्द्रियों के प्रशिक्षण के लिए, और यह बिलकुल और ही चीज है। यह एक कलाकार की भांति है जो रंग, रेखाओं और आकारों के, चीजों की रचना और भौतिक प्रकृति में पाये जाने वाले सामञ्जस्य के मूल्यांकन के लिए आंखों को प्रशिक्षित करता है; वह यह कामनावश हरगिज नहीं करता, वह करता है सुरुचि, संस्कृति, दृष्टि के विकास और सौन्दर्य के मूल्यांकन के लिए। और सामान्यतः, कलाकार, जो सच्चे कलाकार होते हैं और अपनी कला से प्रेम करते हैं, सौन्दर्य के भाव में और सौन्दर्य की खोज में ही जीते हैं, वे ऐसे लोग होते हैं जिनमें अधिक कामनाएं नहीं होतीं। वे विकास के भाव में, केवल दृष्टि के विकास में नहीं, बल्कि सौन्दर्य-बोध के मूल्यांकन में जीते हैं। जो लोग अपने आवेगों और कामनाओं द्वारा जीते हैं उनमें और इनमें बहुत अधिक फर्क होता है। वह एकदम और ही बात है।

 

साधारणतः, समस्त शिक्षण, समस्त संस्कृति, इन्द्रियों और सत्ता का समस्त परिमार्जन सहज वृत्तियों, कामनाओं, आवेगों की शुद्धि के सबसे अच्छे उपायों में से एक है। इन चीजों को अलग कर देने से ही उनका इलाज नहीं हो जाता; उनके इलाज का सबसे अच्छा उपाय है उन्हें प्रशिक्षित करना और बौद्धिक बनाना, सुरुचिपूर्ण और शुद्ध बनाना। सामञ्जस्य और बोध की यथार्थता को एक हद तक प्राप्त करना, प्रगति और वृद्धि के लिए यथासम्भव अधिक-से-अधिक विकास का अवसर देना- यह सत्ता के संस्कार, सत्ता के शिक्षण का एक भाग है। यह उन लोगों की तरह है जो अपनी बुद्धि को प्रशिक्षित करते हैं, जो सीखते हैं, पढ़ते हैं, सोचते हैं, तुलना करते हैं, अध्ययन करते हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनके मन विस्तृत होते हैं, ये उन लोगों की अपेक्षा जिन्हें मानसिक शिक्षा नहीं मिली, बहुत ज्यादा विशाल और सहानुभूतिपूर्ण होते हैं, मानसिक शिक्षा-विहीन लोगों में कुछ ओछे विचार होते हैं जो कभी-कभी उनकी चेतना में परस्पर विरोधी होते हैं, फिर भी, पूरी तरह उन पर शासन करते हैं क्योंकि उनकी कुल पूंजी यही है और वे सोचते हैं कि ये अनोखे विचार हैं जिन्हें उनके जीवन का पथ-प्रदर्शन करना चाहिये; ये लोग बिलकुल संकीर्ण और सीमित होते हैं जब कि जो पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित होते हैं- उनके मन का विस्तार होता है और वे देख सकते हैं, विचारों की तुलना कर सकते हैं, और देख सकते हैं कि संसार में सभी सम्भव विचार हैं और एक सीमित संख्या के विचारों के साथ जकड़े रहना और उन्हें ही सत्य की अनन्य अभिव्यक्ति मानना ओछापन और बेतुकापन है।

 

चेतना को उच्चतर विकास के लिए तैयार करने के लिए शिक्षा निश्चय ही सबसे अच्छे साधनों में से एक है। ऐसे लोग हैं जिनकी प्रकृति बहुत ही अनगढ़ और सरल है, उनमें बड़ी अभीप्सा हो सकती है और उन्हें एक हद तक आध्यात्मिक विकास प्राप्त हो सकता है, लेकिन उनका आधार हमेशा निम्न कोटि का होगा, और जैसे ही वे अपनी सामान्य चेतना में लौटेंगे वे उसमें बाधाएं पायेंगे, क्योंकि उनका मूल पदार्थ बहुत कमजोर है, उनकी भौतिक और प्राणिक चेतना में पर्याप्त तत्त्व नहीं हैं जो उन्हें उच्चतर शक्ति के अवतरण को सहन करने के योग्य बना सकें।

 

लोभवश और भोजन के लिए तृष्णा के कारण खाना एक बात है और विभिन्न स्वादों का अध्ययन करना, उनकी तुलना करना, उन्हें मिलाना और उनका मूल्यांकन करना जानना एक और ही बात है। कोई और प्रश्न हैं, नहीं?

मधुर मां, स्वाद कहां से आते हैं?

यह इन्द्रियों में से एक है; लोग कहते हैं कि यह जीभ है; मैं नहीं जानती। यह स्वाद का संवेदन है, जैसे स्पर्श का संवेदन होता है। यह कैसे होता है कि हम किसी चीज का अनुभव अपनी उंगलियों की पोरों से करते हैं? वहां स्नायुएं होती हैं, स्नायुएं और चेतना। स्वाद : यह स्नायुएं और है जो जीभ और तालू में होती हैं।

उपवास ग्रहणशीलता की स्थिति कैसे पैदा करता है?

यह इसलिए क्योंकि प्रायः प्राण शरीर पर बहुत ज्यादा केन्द्रित होता है, जब शरीर भली-भांति खाये-पिये हो तो वह अपनी शक्ति भोजन से पाता है, अपनी ऊर्जा भोजन से पाता है, और यह एक तरीका है… स्पष्ट है कि यह लगभग एकमात्र तरीका है; एकमात्र नहीं, लेकिन वर्तमान जीवन की अवस्थाओं में यह सबसे महत्त्वपूर्ण तरीका है… लेकिन यह ऊर्जा ग्रहण करने का बहुत ही तामसिक तरीका है।

अगर तुम इस बात पर विचार करो तो देखोगे कि यह वह प्राण-शक्ति है जो वनस्पतियों या पशुओं में पायी जाती है, युक्तियुक्त रूप से देखें तो यह उस प्राण-शक्ति से घटिया है जो मनुष्य में होनी चाहिये- जातियों के वर्गीकरण में मनुष्य जरा ज्यादा ऊंची सत्ता है। तो अगर तुम नीचे से ऊर्जा खींचो तो उसके साथ-ही-साथ नीचे की निश्चेतना को भी खींचते हो। काफी मात्रा में निश्चेतना को आत्मसात् किये बिना खाना असम्भव है; यह तुम्हें भारी बना देती है, यह तुम्हें स्थूल बना देती है, और अगर तुम बहुत अधिक खाओ तो तुम्हारी चेतना का बहुत बड़ा हिस्सा खायी हुई चीजों को पचाने और आत्मसात् करने में लगा रहता है। अतः पहले से ही, अगर तुम खाना न खाओ तो तुम्हारे अन्दर यह सारी निश्चेतना नहीं आती जिसे तुम्हें आत्मसात् करना और अपने अन्दर बदलना पड़ता है, इससे ऊर्जाएं मुक्त होती हैं। और फिर, सत्ता में यह सहज वृत्ति होती है कि वह खर्च की हुई ऊर्जा की क्षतिपूर्ति करे, और चूंकि तुम भोजन से, यानी, नीचे से ऊर्जा नहीं लेते, अतः, सहज रूप से तुम वैश्व प्राण-शक्तियों से एक होकर ऊर्जा लेने का प्रयास करते हो जो मुक्त होती हैं। और अगर तुम उन्हें आत्मसात् करना जानो तो उन्हें सीधा आत्मसात् करते हो, और उसकी कोई सीमा नहीं।

यह तुम्हारे आमाशय की तरह नहीं है जो अमुक मात्रा से अधिक भोजन नहीं पचा सकता, अतः, तुम उससे अधिक नहीं खा सकते; और तुम जो भोजन करते हो वह भी अपने-आप बहुत थोड़ी मात्रा में, बहुत ही थोड़ी मात्रा में प्राणिक ऊर्जा को मुक्त करता है। तो फिर, निगलने, हजम करने आदि के काम के बाद तुम्हारे पास क्या रह जाता है? बहुत कुछ नहीं। लेकिन अगर तुम सीख लो… और यह एक प्रकार की सहज वृत्ति होती है, तुम सहज वृत्ति से ही उन वैश्व ऊर्जाओं को अपनी ओर खींचना सीखते हो जो सारे विश्व में मुक्त विचरती हैं और मात्रा में जिनकी कोई सीमा नहीं… तुम जिस हद तक खींच सकते हो, उस हद तक आत्मसात् कर सकते हो और जब नीचे का आधार नहीं रहता जो भोजन से आता है तो बाहर से ऊर्जाओं को प्राप्त करने के लिए तुम आवश्यक क्रिया करते हो, और तुम्हारे अन्दर जितनी अधिक ऊर्जा लेने की क्षमता हो, ले लेते हो, और कभी-कभी उससे अधिक भी। तो यह चीज तुम्हें एक उत्तेजना की-सी अवस्था में ला देती है, और अगर तुम्हारा शरीर बहुत मजबूत हो और वह पोषण के बिना कुछ समय तक रह सके, तो तुम अपना सन्तुलन बनाये रख सकते हो और इन ऊर्जाओं का हर तरह की चीज में उपयोग कर सकते हो, उदाहरणार्थ, प्रगति के लिए, अधिक सचेतन होने और अपनी प्रकृति का रूपान्तर करने के लिए। लेकिन अगर तुम्हारे भौतिक शरीर में ऊर्जा का अधिक सञ्चय नहीं है, और अगर न खाने से वह बहुत अधिक कमजोर हो गया है, तो आत्मसात् की हुई ऊर्जाओं की तीव्रता और शरीर की सहन-शक्ति में एक असन्तुलन पैदा हो जाता है, और यह गड़बड़ पैदा करता है। तुम अपना सन्तुलन खो बैठते हो, और शक्तियों का सारा सन्तुलन नष्ट हो जाता है, और तुम्हें कुछ भी हो सकता है। बहरहाल बहुत हद तक तुम अपने ऊपर नियन्त्रण खो बैठते हो, और प्रायः बहुत अधिक उत्तेजित हो जाते हो, और इस उत्तेजना को तुम कोई उच्चतर अवस्था मान बैठते हो। लेकिन अधिकतर वह केवल एक आन्तरिक असन्तुलन होता है, उससे अधिक कुछ नहीं। यह ग्रहणशीलता को बहुत तेज बना देता है। उदाहरण के लिए, जब कोई उपवास करता है और निचली ऊर्जाओं को नहीं लेता, तब अगर वह किसी फूल को सूंघे तो वह उसे पोषण देता है, सुगन्ध उसे पोषण देती है, वह उसे बहुत-सी ऊर्जा प्रदान करती है, अन्यथा, उसका उस ओर ध्यान भी नहीं जाता।

कुछ क्षमताएं हैं जो तीव्र हो जाती हैं, और हम उन्हें आध्यात्मिक प्रभाव समझ बैठते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन के साथ इसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है, बस इतना ही है कि बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो बहुत अधिक खाते हैं, खाने के बारे में बहुत अधिक सोचते हैं, जो उनमें पूरी तरह तन्मय हो जाते हैं, जब ये लोग भर पेट खा लेते हैं-तो जैसा कि मैंने कहा, उन्हें पचाना पड़ता है, और इसलिए उनकी सारी ऊर्जा पचाने में ही केन्द्रित हो जाती है-ऐसे लोग स्वभाव से बहुत मन्द हो जाते हैं, और यह चीज उन्हें जड़ता की ओर बहुत अधिक खींचती है; और अगर वे लोग खाना छोड़ दें और खाने के बारे में सोचना छोड़ दें – एक चीज याद रखो कि अगर हम उपवास करें पर सारे समय यही सोचें कि हमें भूख लगी है और हम खाना चाहते हैं, तो यह उपवास खाना खाने से दस गुना अधिक बुरा है- अगर वे सचमुच उपवास कर सकें क्योंकि वे किसी दूसरी चीज के बारे में सोचते हैं और किसी दूसरी चीज में व्यस्त रहते हैं और भोजन में रुचि नहीं रखते- तो यह चीज उन्हें कुछ हद तक चेतना के उच्चतर स्तर पर चढ़ने में सहायता दे सकती है, भौतिक आवश्यकताओं के बन्धन से छुटकारा दिला सकती है। लेकिन उपवास, सभी चीजों की भांति, उन लोगों के लिए अच्छा है जो उसमें विश्वास करते हैं। जब तुम्हें यह श्रद्धा हो कि इससे तुम्हारी प्रगति होगी, यह तुम्हें शुद्ध करेगा, तो इससे लाभ होता है। अगर तुम इसमें विश्वास न रखो तो इससे कुछ नहीं होगा, सिर्फ तुम दुबले हो जाओगे।

मैटरलिंक को लो… मैं सोचती हूं कि तुम लोग मैटरलिंक की किताबों से परिचित होगे; तुमने नील-विहंग” (L’Oiseau Bleu) और अन्य पुस्तकें अवश्य पढ़ी होंगी। वह बहुत भारी शरीर वाला व्यक्ति था, सौन्दर्य-बोध होने के कारण उसे अपना मोटापा बहुत खटकता था। इस कारण उसने हफ्ते में एक बार उपवास करने का निश्चय किया; वह हफ्ते में एक दिन खाता था, यह आदमी समझदार था इसलिए वह भोजन के बारे में सोचता न था; वह लिखता जाता था, उस दिन वह बहुत अधिक कार्य कर लेता था, और इस कारण उसका शरीर काफी कुछ सुगठित और सुन्दर बना रहता था; इस दृष्टिकोण से उपवास उसके लिए बहुत उपयोगी था। अगर तुम नहीं खाते तो दुबले हो जाते हो, यह एक निश्चित परिणाम है; अतः अगर तुम बहुत मोटे हो और दुबले होना चाहते हो तो यह एक अच्छा तरीका है। लेकिन इसी शर्त पर कि तुम अपना सारा दिन केवल भोजन के बारे में ही सोचने में न बिता दो, क्योंकि तब उपवास तोड़ते ही तुम उसकी ओर झपट पड़ते हो और इतना खा जाते हो कि जितना तुमने खोया था वह सब वापस आ जाता है। वस्तुतः, सबसे अच्छा तो यह है कि भोजन के बारे में सोचा ही न जाये, जीवन को यन्त्रवत् इस तरह व्यवस्थित किया जाये कि खाने के बारे में सोचने की जरूरत ही न रहे। तुम निश्चित समय पर खाओ, उचित मात्रा में खाओ, खाना खाते समय तुम्हें खाने के बारे में सोचने की कोई आवश्यकता ही नहीं है; चुपचाप खाना चाहिये, बस इतना ही, शान्ति के साथ, एकाग्रचित्त होकर, और जब तुम भोजन नहीं कर रहे तब उसके बारे में कभी सोचना भी न चाहिये। बहुत अधिक नहीं खाना चाहिये, क्योंकि तब तुम्हें अपनी पाचन क्रिया के बारे में सोचना पड़ेगा, और वह तुम्हारे लिए बहुत ही अरुचिकर होगा और इससे तुम्हारा काफी समय नष्ट होगा। ठीक मात्रा में खाना चाहिये… सभी कामनाओं, सभी आकर्षणों, प्राण की सब क्रियाओं से मुक्त होना चाहिये, क्योंकि जब तुम केवल इसलिए खाते हो कि शरीर को पोषण की आवश्यकता है तब जब शरीर के लिए काफी होगा तो वह सुनिश्चित और ठीक-ठीक तुम्हें बता देगा; जब मनुष्य किसी प्राणिक कामना या मानसिक विचारों से परिचालित नहीं होता तो वह इस बात को निश्चित रूप से पकड़ लेता है। “बस, अब काफी है,” शरीर कहता है, “मैं और अधिक नहीं चाहता।” तो व्यक्ति खाना बन्द कर देता है। जैसे ही तुम्हारे अन्दर विचार उठते हैं, या तुम्हारे प्राण में कामनाएं उठती हैं, उदाहरण के लिए, कोई ऐसी वस्तु जो तुम्हें विशेष प्रिय है, क्योंकि वह तुम्हें विशेष प्रिय है तुम उसे तीन गुना अधिक खा लेते हो…। वस्तुतः, यह तुम्हारा एक हद तक उपचार भी करता है, क्योंकि अगर तुम्हारा पेट काफी स्वस्थ-सशक्त नहीं है तो तुम्हें बदहजमी हो जाती है, और फिर, जिस चीज से तुम्हें बदहजमी हुई उससे तुम्हें अरुचि हो जाती है। लेकिन, आखिर ये सब काफी उग्र तरीके हैं। व्यक्ति इन तरीकों का सहारा लिये बिना भी प्रगति कर सकता है। सबसे अच्छी बात यही है कि उसके बारे में सोचो ही मत।

ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने और दूसरों के लिए खाना पकाते हैं, और जो उसके बारे में सोचने के लिए बाधित होते हैं, लेकिन बहुत ही कम। व्यक्ति कहीं अधिक रुचिकर चीजों के बारे में सोचते हुए भी खाना पका सकता है। बहरहाल, खाने के बारे में जितना कम सोचा जाये उतना ही अच्छा; और अगर तुम्हारे मन और प्राण उसी में न लगे रहें तो शरीर एक बहुत अच्छा सूचक बन जाता है। जब उसे भूख लगेगी वह तुमसे कह देगा, जब उसे कुछ लेने की जरूरत होगी तो वह तुमसे कह देगा; जब वह खाना खत्म कर लेगा, जब उसे और अधिक की आवश्यकता न रहेगी तो वह तुमसे कह देगा; जब उसे भोजन की आवश्यकता नहीं होती तो वह उसके बारे में सोचता तक नहीं, वह किसी और चीज के बारे में सोचता है। यह दिमाग है जो सारी गड़बड़ करता है। वास्तव में, यह दिमाग ही है जो हमेशा गड़बड़ पैदा करता है, क्योंकि तुम उसका उपयोग करना नहीं जानते। अगर तुम्हें उसका उपयोग करना आता तो वह भी सामञ्जस्य पैदा कर देता। सचमुच यह बड़ी अजीब बात है कि लोग अपनी कल्पना- शक्ति का उपयोग हमेशा बुरी बातों के लिए करते हैं, और यह बहुत, बहुत विरल है कि वे अपनी कल्पना-शक्ति का उपयोग किसी अच्छी चीज के लिए करते हों। अनुकूल चीजें सोचने की जगह, जो तुम्हारे अन्दर सामञ्जस्य और सन्तुलन बनाये रखने में मदद दें, वे हमेशा सभी सम्भव विपत्तियों के बारे में सोचते हैं, तो स्वाभाविक है कि वे अपनी सत्ता का सन्तुलन खो बैठते हैं, और इस मामले में, दुर्भाग्यवश, अगर वे भयभीत भी हो उठें तो वे उन्हीं संकटों को आकर्षित कर लेंगे जिनसे वे डरते हैं।

तो, बस । इतना ही? कोई प्रश्न ? शुभ रात्रि, मेरे बच्चो।