Daily Quotes

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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.

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एकाग्रता और ध्यान

श्री माँ और श्री अरविन्द की वाणी

एकाग्रता क्या है ?
  • एकाग्रता का अर्थ है चेतना को एक स्थान, एक विषय या एक स्थिति पर स्थिर करना। 
  • ध्यान तब होता है – जब आंतरिक मन सत्य ज्ञान पाने के लिये वस्तुओं को देखता है। 
  • तुम्हारे अंदर ऐसी संकल्प शक्ति नहीं होना चाहिये जो मोमबती की तरह बुझ जाये। 
एकाग्रता की आवश्यकता –
  • स्मृति के विकास और मानसिक स्थिरता के लिए। 
  • भगवान को पाने की तीव्र अभीप्सा को जागृत बनाये रखने के लिये।

एकाग्रता का विषय – भगवान पर एकाग्रता।

एकाग्रता के केंद्र –
  • ह्रदय केंद्र में अपने आप को एकाग्र करो ह्रदय में प्रवेश करो, अपने अंदर जाओ, गहराई में उतरो और दूर तक जितनी दूर तक तुम जा सको, जाओ। 
  • अपनी चेतना के बाहर बिखरे हुये तारों को एकत्र कर लो, उन्हें समेटकर अंदर डुबकी लगाओ और तह में जाकर बैठ जाओ। 
  • वहाँ ह्रदय की गंभीर शांति में एक अग्नि जल रही है। 
  • यही है तुम्हारे अंतर में रहने वाले भगवान का दिव्यअंश। तुम्हारी सत्य सत्ता (हृत्पुरुष)।
  • इसकी आवाज सुनो और इसके आदेश का पालन करो।
एकाग्रता के लिये दूसरे केन्द्र भी है –
  • एक केन्द्र मस्तिष्क के ऊपर (सहस्त्रार) है। 
  • दूसरा भ्रू-मध्य में है (आज्ञाचक्र)।
  • हर एक केंद्र की अपनी शक्ति तथा परिणाम है। 
  • किंतु चेतना के रूपांतर के लिए सर्वोतम ध्यान का केंद्र (ह्रत्केन्द्र) अनाहत चक्र है। 
  • और तब तुम्हें चेतना के साहस और आमूल परिवर्तन का पूरा आनंद मिलता है।
ध्यान के दो रूप है –
  • ध्यान का अर्थ है – जब मनुष्य अपने मन को किसी एक ही विषय को स्पष्ट करने वाली किसी एक ही विचार-धारा पर एकाग्र करता है तो उसे ही वास्तव में ‘मेडिटेशन’ कहते है। 
निदिध्यासन अर्थ –
  • जब मनुष्य किसी एक ही विषय, मूर्ति, भावना, विचार आदि पर मन कि दृष्टि लगा देता है, जिससे एकाग्रता की शक्ति की सहायता से उसके मन में स्वभावतः ही उस विषय, मूर्ति या भावना का ज्ञान उदित हो जाता है। 
ध्यान क्या है?
  • ध्यान सत्य चेतना को नीचे उतार लाने की एक पद्धति है। 
  • ध्यान में सत्य चेतना के साथ युक्त होना या उसके अवतरण को अनुभव करना ही एकमात्र महत्वपूर्ण है। 
  • ध्यान एक साधना है। सच्ची क्रिया तो यह है कि मनुष्य जब चलता-फिरता, काम करता या बातचीत करता हो तो भी साधना के भाव में रहे।
स्मरणीय बात -
  • ध्यान में अधिक से अधिक घंटे बिताना ध्यान नहीं है। 
  • मुख्य बात है ध्यान के लिये प्रयास ही न करना पड़े। सहज ध्यान लग जाये। उसमें प्रगति होना चाहिये।
सामूहिक प्रार्थना और ध्यान –
  • सामूहिक प्रार्थना और ध्यान की अपनी शक्ति होती है। वातावरण को घनीभूत और शक्तिशाली बनाती है।
ध्यान के लिये आवश्यक –
  • अपने आपको खोलना। 
  • प्रगति की प्यास, ज्ञान की प्यास, अपने आपको रूपांतरित करने की प्यास। इन सबसे बढ़कर दिव्य प्रेम और सत्य की प्यास।
  • प्यास एक आवश्यकता हो।
  • अपनी आदतों से चिपके रहने की आदत छोड़ना होगा। सब गाठें खोलनी होगी। 
  • भगवान ने तुम्हें जो परिस्थियाँ दी है उन्हें रखते हुये अगर हम मुसीबतों के बीच अपने स्वभाव के ऊपर प्रभुत्व पा सके। 
  • बार-बार चुप रहने का मौका ढूंढो। 
  • लपलपाती जीभ पर नियंत्रण करो। 
  • प्रातः उठने के साथ तथा सोने के पूर्व शांति_ _ _शांति_ _ _शांति दोहराओ।

संयोजन : सुमन कोचर

चैत्य ध्यान साधना

एकाग्रता और ध्यान के पूर्व क्या करे ?
  • एकाग्रता, ध्यान करने के पूर्व शांत, स्थिर, अचंचल निश्चल-नीरव होकर बैठें। दोनों नेत्र बंद कर लें। अब अपने ईष्ट से प्रार्थना करें। 

हे प्रभो, मेरा शरीर, प्राण, मन, ह्रदय सब शांत हो जाये। पूर्ण शांत। पूर्ण स्थिर। 

मेरे शरीर की बैचेनी को शांत कर दो, मेरे शरीर का प्रत्येक अंग, मेरी नस-नाड़ियाँ, समस्त कोशिकाएँ शांत हो जायें । 

ॐ शांति_ _ शांति_ _शांति_ _ _

हे प्रभो, मेरे प्राणों के अंदर की समस्त इच्छाएँ, कामनाएँ, लोभी प्रवृत्तियाँ सब कुछ शांत हो जायें । 

ॐ शांति_ _ शांति_ _शांति_ _ _

हे प्रभो, मेरे मन के विचारों का संघर्ष, मन की मटरगश्ती, विचारों का हाट बाजार, निरर्थक कल्पनाएँ, मानसिक तनाव सब शांत हो जायें। 

ॐ शांति_ _ शांति_ _शांति_ _ _

हे प्रभो, मेरे ह्रदय के समस्त अशुद्ध, निरर्थक उठने वाले भावों से मुझे मुक्त कर दो। मेरे बैचेन ह्रदय को शांत कर दो। मेरे ह्रदय में परम शांति भर दो। 

ॐ शांति_ _ शांति_ _शांति_ _ _

  • अब मैं शांत हूँ। 
  • मेरा शरीर शांत है मेरे शरीर में सौंदर्य खिल रहा है।
  • मेरा प्राण स्थिर और शांत है – मुझे उत्साह और ऊर्जा का अनुभव हो रहा है। 
  • मेरा मन विचारों के दबाव से मुक्त और शांत हो चुका है। 
  • मेरा ह्रदय अंदर गहराई में मधुर शांति और स्थिरता का अनुभव कर रहा है। 
  • एक गहन शांति ने मुझे अंदर किसी अतल-प्रशांत गहराई में पहुँचा दिया है। 
  • अब मैं, अब मैं सोच रहा हूँ। 
  • मैं कौन हूँ? मैं धरती पर क्यों आया हूँ? मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे करना क्या है? हे प्रभो, मुझे मार्ग दर्शन दो। मुझे पथ पर ले चलो।  

प्रार्थना, एकाग्रता और ध्यान

श्रीमाँ कहती है – “हमारा सारा जीवन भगवान को निवेदित प्रार्थना हो”।
प्रार्थना
सच्ची प्रार्थना क्या है ?
  • हे प्रभो, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम मेरे चरणों को रास्ता दिखाओ, मेरे मन को प्रकाशित कर दो ताकि मैं हर क्षण और हर चीज़ में ठीक वही करूँ जो तुम मुझसे करवाना चाहते हो । 
  • प्रार्थना, तुरंत पूरा किए जाने का आग्रह करने वाली प्रार्थना नहीं, बल्कि ऐसी प्रार्थना हो जो स्वयं ही भगवान के साथ मन और ह्रदय की घनिष्ठता, जो अपनी प्रसन्नता और संतुष्टि प्राप्त कर सके। 
  • अपने समय पर भगवान द्वारा पूरा किए जाने का भरोसा करने वाली प्रार्थना। 
  • प्रार्थना सीधे ह्रदय से, तीव्र अभीप्सा के साथ मस्तिष्क में से गुजरे बिना आना चाहिये। 
  • यदि वे तुम्हारे मस्तिष्क में धक्कम-धक्का करने वाले केवल शब्द हों तो फिर वह प्रार्थना बिलकुल नहीं रह जाती। 
  • प्रार्थना में मनुष्य बोलता है भगवान सुनते हैं। 
  • ध्यान में भगवान बोलते हैं मनुष्य सुनता है। 
एकाग्रता
एकाग्रता क्या है ?
  • एकाग्रता का अर्थ है चेतना को एक स्थान, एक विषय या एक स्थिति पर स्थिर करना। 
  • ध्यान तब होता है – जब आंतरिक मन सत्य ज्ञान पाने के लिये वस्तुओं को देखता है। 
  • जो लोग पूर्ण एकाग्रता प्राप्त करने में समर्थ होते हैं वे जो कार्य अपने हाथ में लेते हैं उसमें सफल होते हैं वे सदा महान उन्नति करते हैं। 
  • एकाग्रता और संकल्पशक्ति को नियमित अभ्यास द्वारा विकसित करना चाहिये। 
  • तुम्हारे अंदर ऐसी संकल्प शक्ति नहीं होना चाहिये जो मोमबत्ती की तरह बुझ जाये। 
एकाग्रता की आवश्यकता क्यों हैं ?
  • स्मृति के विकास और मानसिक स्थिरता के लिए। 
  • भगवान को पाने की तीव्र अभीप्सा को जागृत बनाये रखने के लिये।
  • भगवान के संकल्प और उद्देश्य को चरितार्थ करने के लिये। अखंड समर्पण की भावना के साथ भगवान पर एकाग्र होने के लिये।
एकाग्रता का विषय होना चाहिए – भगवान पर एकाग्रता।
एकाग्रता के केंद्र है –
  • ह्रदय केंद्र में अपने आप को एकाग्र करो। ह्रदय में प्रवेश करो, अपने अंदर जाओ, गहराई में उतरो और दूर तक – – – जितनी दूर तक – – – तुम जा सको, जाओ। 
  • अपनी चेतना के बाहर बिखरे हुए तारों को एकत्र कर लो, उन्हें समेटकर अंदर डुबकी लगाओ और तह में जाकर बैठ जाओ। 
  • वहाँ ह्रदय की गभीर शांति में एक अग्नि जल रही है। 
  • यही है तुम्हारे अंतर में रहने वाले भगवान का दिव्य अंश । तुम्हारी सत्य सत्ता (चैत्यपुरुष)।
  • इसकी आवाज सुनो और इसके आदेश का पालन करो। 
एकाग्रता के लिये दूसरे केन्द्र भी है –
  • एक केन्द्र मस्तिष्क के ऊपर (सहस्त्रार) है। 
  • दूसरा भ्र-मध्य में है (आज्ञाचक्र)।
  • हर एक केंद्र की अपनी शक्ति तथा परिणाम है। 
  • किंतु चेतना के रूपांतर के लिए सर्वोतम ध्यान का केंद्र अनाहत चक्र है। 
  • यहाँ ध्यान केन्द्रित करने से गतिशीतलता, वेग और उपलब्धि की शक्ति निकलती है। 
  • ऐसी एकाग्रता से अचानक कपाट खुल जाते हैं। तुम अंदर प्रवेश करते हो। 
  • यहाँ का दिव्य प्रकाश तुम्हें पूरी तरह अभिभूत कर लेता है। 
  • और तब तुम्हें चेतना के साहस और आमूल परिवर्तन का पूरा आनंद मिलता है। 
  • लगता है कि तुम नये बन गये हो। 
  • यह अपनी चैत्य सत्ता के साथ संपर्क में आने के लिये बहुत ठोस और बहुत सशक्त मार्ग है।
ध्यान
ध्यान क्या है?
  • ध्यान सत्य चेतना को नीचे उतार लाने की एक पद्धति है। 
  • ध्यान में सत्य चेतना के साथ युक्त होना या उसके अवतरण को अनुभव करना ही एकमात्र महत्वपूर्ण है। 
  • ध्यान एक साधना है। सच्ची क्रिया तो यह है कि मनुष्य जब चलता-फिरता, काम करता या बातचीत करता हो तो भी साधना के भाव में रहे।

ध्यान का मूल तत्व है विचार, अंत: दर्शन या ज्ञान में मानसिक एकाग्रता।

ध्यान के दो रूप है –
  • ध्यान का अर्थ है – जब मनुष्य अपने मन को किसी एक ही विषय को स्पष्ट करने वाली किसी एक ही विचार-धारा पर एकाग्र करता है तो उसे ही वास्तव में मेडिटेशन कहते हैं। 
निदिध्यासन अर्थ है –
  • जब मनुष्य किसी एक ही विषय, मूर्ति, भावना, विचार आदि पर मन की दृष्टि लगा देता है, जिससे एकाग्रता की शक्ति की सहायता से उसके मन में स्वभावतः ही उस विषय, मूर्ति या भावना का ज्ञान उदित हो जाता है। 
स्मरणीय बात है -
  • ध्यान में अधिक से अधिक घंटे बिताना ध्यान नहीं है। 
  • मुख्य बात है ध्यान के लिये प्रयास ही न करना पड़े। सहज ध्यान लग जाये। उसमें प्रगति होना चाहिये। 
  • सच्चे ध्यान वे होते हैं जो तुम हठात करते हो।
  • हर ध्यान को नया अंतः प्रकाश होना चाहिये क्योंकि हर ध्यान में कुछ नया होता है।  
सामूहिक प्रार्थना और ध्यान क्या है –
  • सामूहिक प्रार्थना और ध्यान की अपनी शक्ति होती है। वातावरण को घनीभूत और शक्तिशाली बनाती है।
ध्यान के लिये आवश्यक है –
  • अपने आपको खोलना। 
  • प्रगति की प्यास, ज्ञान की प्यास, अपने आपको रूपांतरित करने की प्यास। इन सबसे बढ़कर दिव्य प्रेम और सत्य की प्यास।
  • प्यास एक आवश्यकता हो।
  • अपनी आदतों से चिपके रहने की आदत छोड़ना होगा। सब गाठें खोलनी होगी। 
  • आध्यात्मिक जीवन की खोज के लिये – अकेले खाना, सोना, चलना, जंगल में रहना आत्मा की मुक्ति के लिये पर्याप्त नहीं है। 
  • भगवान ने तुम्हें जो परिस्थितियाँ दी है उन्हें देखते हुये अगर तुम मुसीबतों के बीच अपने स्वभाव के ऊपर प्रभुत्व पा सको। 
  • बार-बार चुप रहने का मौका ढूंढो। 
  • लपलपाती जीभ पर नियंत्रण करो। 
  • शांति का जादू पैदा करो। 
  • प्रातः उठने के साथ तथा सोने के पूर्व शांति_ _ _शांति_ _ _शांति दोहराओ। 
  • ध्यान आंतरिक शांति, एकाग्रता तथा प्रगति के लिये आवश्यक है। 
व्यक्ति ध्यान क्यों करता है?
  • यही वह चीज़ है जो ध्यान को यही विशेषता प्रदान करती है और यह निर्धारित करती है कि ध्यान किस श्रेणी का है। 
  • तुम शक्ति प्राप्त करने के लिये ध्यान करते हो। 
  • व्यवहारिक कारणों से ध्यान करते हो। 
  • किसी कठिनाई को पार करना है। एक समाधान खोज निकालना चाहते हो। 
  • किसी विशेष कार्य में सहायता पाने के लिये। 
  • दिव्य शक्ति की ओर अपने को खोलने के लिये। 
  • अपनी साधारण सत्ता का त्याग करने के लिये। 
  • अपनी सत्ता की गहराई में पैठने के लिये। 
  • अपने आपको उत्सर्ग करना सीखने के लिये। 
  • शांति, स्थिरता  और नीरवता में प्रवेश करने के लिये। 
  • रूपान्तरण करने वाली शक्ति ग्रहण करने के लिये। 
  • अपनी प्रगति की धारा का पता लगाने के लिये। 
इनमें से कोई भी कारण हो सकता है, किंतु एक ‘सक्रिय ध्यान’ होता है।
  • जिसमें तुम्हारी सत्ता को रूपांतरित कर देने की शक्ति होती है। जो तुम्हें आगे बढ़ाता है। उसके लिये तुम्हारे अंदर प्रगति के लिये गहरी अभीप्सा होना चाहिये। 
  • इसी अभीप्सा को मदद पहुंचाने और इसे सिद्ध करने के लिये ध्यान किया जाना चाहिये। 
  • यही सक्रिय ध्यान है।

ध्यान एवं श्री माँ मंत्र ध्यान

श्रीमाँ – श्रीअरविन्द के प्रकाश में

आध्यात्मिक जीवन में ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रत्येक मानव के अंदर ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, आत्मनिवेदन, अभीप्सा और समर्पण आवश्यक है। जीवन जीने के लिए हमारे अंदर एक सामान्य सकारात्मक  अभिवृत्ति  होना चाहिये। प्रत्येक को ध्यान के लिए तैयारी करना चाहिये। अपने ईष्ट का निरंतर स्मरण करें। 

महायोगी श्रीअरविन्द कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की तैयारी के लिए सबसे अधिक प्रभावी तरीका है श्रीमाँ का निरंतर स्मरण । प्रत्येक कार्य के आरंभ और अंत में श्रीमाँ का स्मरण अवश्य करें। निरंतर श्रीमाँ का स्मरण ध्यान का मार्ग तैयार करेगा और एक ऐसा समय आयेगा जब ध्यान सहज हो जायेगा। 

ध्यान करते समय हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों को स्मरण रखना चाहिये –
  • ध्यान के प्रति हमारा भाव बहुत महत्वपूर्ण होता है । ध्यान श्रीमाँ के प्रति निवेदित होना चाहिये और व्यक्ति को श्रीमाँ की सहायता का आव्हान करना चाहिये।
  • ध्यान के लक्ष्य के प्रति सजग बनें। 
  • ध्यान दो प्रकार के होते हैं – गतिशील ध्यान और निष्क्रिय ध्यान।
  • निष्क्रिय ध्यान वह है – जब व्यक्ति अंतःस्थित भगवान के साथ एक होकर शांति, सामंजस्य और आनंद की इच्छा करता है।  
  • गतिशील ध्यान वह है – जिसमें व्यक्ति जीवन में सही निर्णय लेने के लिये भगवान का पथ–निर्देश चाहता है और भगवान का निष्कलुष यंत्र बनने की अभीप्सा करता है।
  • मन में शांति, स्थिरता एवं गंभीरता लाने के लिये ध्यान करते समय हमें कल्पना करनी चाहिये कि हमारे ह्रदय में प्रभु स्वर्णिम रूप में विराजमान है। 
  • ध्यान में तीनों में से किसी एक बिंदु पर एकाग्रता हो सकती है : सिर के ऊपर, भ्रूमध्य में, या वक्षस्थल के मध्य में जहां हृत्पुरुष की ज्योति प्रज्ज्वलित रहती है । श्रीमाँ कहती है – हृत्पुरुष के बिंदु पर एकाग्रता से हृत्पुरुष को आगे ले लाने में सहायता मिलती है और भगवान से एकत्व प्रगाढ़ होता है।
  • यदि विचार ध्यान में आते हों तो व्यक्ति को उनमे रस लिये बिना विचारों को गुजर जाने देने का एक सचेतन प्रयास करना चाहिये। शनैः – शनैः विचारों का आक्रमण मंद पड़ने लगेगा तथा ध्यान अधिक स्थिर होने लगेगा।
  • ध्यान में शारीरिक मुद्रा भी महत्वपूर्ण है। किसी भी आसन या सुखासन में बैठ जाएँ। ध्यान के समय ऊपर से शक्ति का अवतरण होता है और उस शक्ति को ग्रहण करने के लिये मेरुदंड का सीधा रहना महत्वपूर्ण है । 
  • ध्यान में मौन अवस्था सर्वोतम है। मंत्रोच्चार मन को शांत करने में सहायक होता है। हम किसी भी मंत्र का जप कर सकते हैं। श्रीमाँ की दिव्य शक्ति से जुडने तथा उनकी कृपा को सहज प्राप्त करने के लिये एक ही प्रभावी मंत्र है – 
“ ॐ आनन्दमयि चैतन्यमयि सत्यमयि परमे ”

शब्द मंत्र-ध्यान

शब्द क्या है ?

हर शब्द में एक शक्ति होती है। अच्छी या बुरी। सामान्य तौर पर हम अपने दैनिक जीवन में हर पल जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं उनमें विचारों के ऐसे स्पंदन तथा विचारों के ऐसे आकार उत्पन्न करते हैं, जो दूसरों पर, स्वयं हम पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। 

बुरे शब्द अंदर से खोखला कर देते हैं। सावधान हो जाओ। जागो प्रयत्न करो। ऊपर उठने के लिए हमेशा सकारत्मक विचारों को पोसने को कहा जाता है। भगवान की सहायता मांगो। यदि हम शब्दों के ध्वनि स्पंदनों का सचेतन रूप से उपयोग करना जानें, तो वे ध्वनियाँ हमारे अंदर सचेतनता और गुप्त शक्ति तक भर सकती है।

मंत्र क्या हैं ?

वैदिक मंत्रों में गुप्त ज्ञान तथा शक्ति होती है। वैदिक मंत्रों के शब्दों की ध्वनियों में दिव्य प्रकम्पन्न तथा रचनात्मक स्पन्दन होते हैं। 

  • मंत्र में आव्हान होता है। 
  • मंत्र में शक्ति होती है। 
  • ह्रदय से उठने वाला हर मंत्र प्रार्थना है। 
  • मंत्र जप से अंदर की सुप्त अग्नि जाग्रत होती है। 
  • मंत्र के शब्द अंतर सत्ता अर्थात् ह्रदय की गहराई से उठते हैं तब वह मन में प्रवेश कर जाते हैं। 
  • उच्चारण करके मंत्र जप करने की अपेक्षा नीरव होकर मंत्र जप अधिक शक्तिशाली होता है।
मंत्र कैसा हो ?
  • मंत्र में एक, दो या तीन शब्द हो तो सहज रूप से निरंतर मंत्र जप चलता रहता है। 
  • यह बिना सोचे जपे भी ह्रदय से फूट निकलने वाला मंत्र होता है।
  • ह्रदय से फूट निकलने वाले मंत्र शक्तिशाली होते हैं, जो अनायास होने वाली दुर्घटनाओं और कठिनाइयों से सहज बचा लेते हैं। 
  • मंत्र के स्पन्दन शरीर को एक विशेष अवस्था में प्रवेश कराने में सहायक होते हैं। 
  • शक्ति से अनुप्राणित मंत्र व्यक्ति के अंदर सहज पनपने लगता है।
  • जब शरीर चलता है तो वह मंत्र इन शब्दों की लय-ताल में कदम बढ़ाता है। 
  • शरीर की प्रत्येक क्रिया में मंत्र उठते रहना चाहिये। 
  • शरीर का प्रत्येक कोषाणु स्पंदित होना चाहिये। 
  • प्रत्येक कोषाणु में आरोहण की प्रक्रिया निःशेष रूप से होती रहे।
मंत्र जप के लिए क्या आवश्यक है ?
  • प्रत्येक मंत्र की अपनी शक्ति होती है मंत्र की शक्ति को अनुभव करने के लिए मंत्र के अर्थ पर ध्यान देना आवश्यक है। 
  • जिस नाम का मंत्र जप करो स्वयं को उसके प्रति अंदर से खोलो। 
  • यह अभीप्सा और प्रार्थना करो कि उसकी शक्ति तुम्हारे अंदर उतरे। 
  • तुम्हारी प्रकृति का रूपान्तरण हो। 
  • तुम उसके यंत्र बन सको। 
  • प्राण और मन में छुपी लोभ-लालसा, विक्षोम, चंचलता सब निकाल दो। 
  • यही वह अवस्था है जिसमें नाम मंत्र जप सहज हो जाता है। 
जप की शक्ति क्या है ?
  • मंत्र जप ऊपर की शक्ति के प्रति चेतना को खोलता है। 
  • मंत्र जप ऊपर की ओर उद्घाटित कर उसमें देवता का ज्ञान, शक्ति और सोंदर्य को उतार लाता है,  जिसका वह मंत्र होता है।
  • उदाहरण के लिए- गायत्री मंत्र में भागवत सत्य की ज्योति है, यह परम ज्ञान का मंत्र है। 
ध्यान के लिए एक छोटा-सा तीव्र रूपांतरकारी मंत्र-
  • ॥ॐ नमो भगवते_ _ _ ॐ नमो भगवते॥ 
  • ॐ नमो भगवते_ _ _ जप करो। 
  • मंत्र में पूर्ण श्रद्धा रखो। विश्वास रखो तुम्हारे जीवन के सब प्रहार धकेल दिये जायेंगे। 
ॐ नमो भगवते_ _ _ मंत्र का अर्थ है-
  • “ॐ अर्थात् मैं प्रभु से याचना करता हूँ” 
  • नमो- उन्हें नमस्कार 
  • भगवते- मुझे दिव्य बनाओ 
  • मैं परम प्रभु से याचना करता हूँ कि मुझे दिव्य बनाओ।

 

॥ॐ नमो भगवते_ _ _ _ _ _ _ ॐ नमो भगवते॥

॥ॐ नमो भगवते_ _ _ _ _ _ _ ॐ नमो भगवते॥