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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.
"बालकों को – अपने आप को जानना, अपना स्वामी बनना सिखाया जाये । प्रत्येक माता – पिता को यह सर्वोत्तम उपहार, पूर्ण सचेतन होकर देना चाहिये।
युवा से – युवा हो, युवा रहो। नारी से – नारी शक्ति बनो। वृद्धो से – युवा बने रहने के लिए प्रगति करते रहो ।
चारों जब एक साथ होते हैं मां सबको प्यार से कहती है – मेरे बालक । सरल बनो !
इस संबोधन के पीछे मां का एक ही संकल्प है – मानव बालक जैसा सरल सहज बनें और बना रहे । श्रीमां – श्रीअरविन्द के समाज, संघ निर्माण का पहला सूत्र है सतत् अभ्यास और प्रगति के लिये अन्दर पूर्ण प्यास जगाना, जो जीवन भर करने के लिये मां ने हर एक को मंत्र रूप में दिया है ।
मानव सरल बनकर ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है । पूर्णता का प्रयास करते रहो, निरंतर करते रहो, प्रगति सुनिश्चित है।
पीछे मत देखो, हमेशा आगे देखो, हमेशा आगे बढ़ते चलो, आगे बढ़ने वाला समाज ।
श्रीअरविन्द कहते हैं – अंधेरे को भेदते चले जाओ, जब तक कि सूरज न उग आए और नन्हें – नन्हें पक्षी न चहचहाने लगे और सब कुछ ठीक-ठाक न हो जाए।
श्रीमां कहती है – माता-पिता को गंभीर और सच्चे बनना चाहिये । बच्चों के साथ-साथ स्वयं को भी शिक्षित करते रहना चाहिये। उनकी वाणी, व्यवहार तभी बच्चों के लिए एक आदर्श उदाहरण हो सकते हैं ।
युवा – युवा बनो का अर्थ है – प्रगति और प्रगति करते रहने का विचार, चिर युवा रहने का महामंत्र है ।
युवा व्यक्तिगत लोभ जैसी निम्न प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर ज्ञान और सत्कर्म के द्वारा जीवन को तैयार करें । हृदय और मन को विकसित करें ।
अपने अंदर के नूतन क्षेत्र के प्रति सचेतन बने। उन्हें खोजें, अपने अंदर की क्षमताओं और संभावनाओं को खोजें, जाने और अंदर ईश्वर की जो गुप्त शक्तियां है, उस शक्ति के खजाने को प्राप्त करें । युवा संकल्प और प्रयास से जो आज नहीं कर सके, उसे आगे आने वाले कल में अवश्य कर सकेंगे।नारी – चेतना के विकास की विशाल दृष्टि से नारी और पुरुष मानव सृजन के रूप में एक समान है । उनकी एक ही भूमिका है । एक समान महत्व और उद्देश्य है । नारी और पुरुष एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति है । बशर्ते कि दोनों अपनी प्राथमिकता और ‘मैं’ पन के अधिकार के तुच्छ झगड़ों को छोड़कर एक दूसरे की सेवा करते हुए भागवत् सेवा में अर्पित कर दे । दोनों अपनी चेतना के परिवर्तन और विकास की उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होने के लिए चतुर्विध तपस्या करें । श्री माँ के अनुसार नारी के अंदर आध्यात्मिक शक्ति है । चैत्य शक्ति है, जो पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा घनीभूत और केंद्रित है । पुरुषों की अपेक्षा नारियाँ इस शक्ति को अपने अंदर अभिव्यक्त करने में ज्यादा सक्षम है किंतु नारियों ने अपने अंदर इसे भागवत क्षमता की परिपूर्णता तक विकसित और व्यक्त नहीं किया है जो उसे करना चाहिये । दोनों को इसके प्रति सचेतन होना चाहिये । इसे जानना चाहिये क्योंकि दोनों एक ही चेतना के स्रोत से जन्म लेते हैं । प्रकृति ने उनको अलग-अलग कार्य दिए हैं किंतु उनका आध्यात्मिक लक्ष्य एक ही है ।
अपने अंदर की गहराइयों में भगवान् को खोजना, पाना और वही बन जाना । इसके लिए दोनों को अपने अंतर विकास की साधना करनी होगी ।