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When you have faith in God, you don't have to worry about the future. You just know it's all in His hands. You just go to and do your best.
"शिष्यों के साथ बातचीत के दौरान प्राणायाम के बारे में श्री अरविन्द ने अपना अनुभव बतलाया था । यहां प्रस्तुत है ए. बी. पुराणी की पुस्तक ‘इवनिंग टॉक्स विद श्री अरविन्द’ से उद्धृत कुछ अंश । – संपादक – सुरेशचंद्रजी त्यागी
मैंने प्राणायाम लगभग 1905 में शुरू किया था । इंजीनियर देवधर ब्रह्मानंद के शिष्य थे । मैंने प्राणायाम के बारे में उनसे निर्देश प्राप्त किये और स्वयं शुरू किया । मैंने प्राणायाम का अभ्यास बड़ौदा में खासीराव जाधव के स्थान पर किया । इसके परिणाम विलक्षण हुए । प्रथम तो यह कि मैं अद्भुत दृश्य और रूपाकार देखने लगा । दूसरे, मैंने अपने सिर के चारों ओर विद्युत शक्ति का अनुभव किया । तीसरे, मेरी लेखन शक्तियां लगभग सूख ही गई थी लेकिन प्राणायाम के अभ्यास के बाद में बहुत उत्साह के साथ पुनर्जीवित हो उठी । मैं प्रवाह के साथ गद्य और काव्य लिखने में समर्थ हो गया । उसके बाद वह प्रवाह कभी नहीं रुका । मैंने बाद में नहीं लिखा तो इसका कारण यह था कि मुझे कुछ और करना था । लेकिन जब भी मैं लिखना चाहूं लिख सकता हूं । चौथी बात यह कि मेरा स्वास्थ्य सुधार गया । मैं हृष्ट-पुष्ट और मजबूत हो गया और मेरी त्वचा चिकनी एवं गोरी हो गई, लार में मिठास का स्राव होने लगा । मैं अपने सिर के चारों ओर एक विशिष्ट वातावरण अनुभव किया करता था । वहां बहुत अधिक मच्छर थे लेकिन वह मेरे पास नहीं आते थे ।
शिष्य : उच्चतर चेतना को ले आने के लिए प्राणायाम क्या भूमिका अदा करता है ?
श्री अरविन्द : प्राणायाम प्राणिक प्रवाहों को ठीक कर देता है और यह मस्तिष्क की मंदता को दूर करता है ताकि उच्चतर चेतना का अवतरण हो सके । प्राणायाम मस्तिष्क में मंदता नहीं लाता । बल्कि मेरा अपना अनुभव यह है कि मस्तिष्क प्रबुद्ध हो जाता है । जब मैं बड़ौदा में प्राणायाम का अभ्यास कर रहा था तो यह मैं दिन में लगभग पाँच घंटे करता था – तीन घंटे सुबह को और दो घंटे शाम को । मैंने अनुभव किया कि मन बहुत प्रदीप्ति और शक्ति से कार्य करने लगा है । मैं उन दिनों काव्य – रचना करता था । प्राणायाम के अभ्यास से पहले में सामान्यता एक दिन में पाँच से आठ पंक्तियां लिखता था – एक महीने में लगभग दो सौ पंक्तियां । अभ्यास के बाद में आधा घंटे के भीतर दो सौ पंक्तियां लिख सकता था । लेकिन इस अभ्यास के बाद मैंने देखा कि जब प्रेरणा हो तो मैं क्रमानुसार सारी पंक्तियां स्मरण कर सकता था और किसी भी समय उनको सही-सही लिख सकता था । इन वर्धित क्रियाओं के साथ में मस्तिष्क के चारों ओर एक विद्युत क्रिया देख सकता था और अनुभव कर सकता था कि यह एक सूक्ष्म तत्व से निर्मित है । मैं महसूस कर सकता था कि हर चीज उस तत्व की गतिविधि है । यह तुम्हारी कार्बन-डाइऑक्साइड से दूर की चीज थी ।
शिष्य : श्वसन क्रिया पूरी तरह रुक जाने पर क्या आपने मानसिक क्रियाशीलता में कोई बदलाव पाया ?
श्री अरविन्द : मैं श्वसन क्रिया को पूरी तरह रोकने के बारे में नहीं जानता लेकिन प्राणायाम के समय श्वसन नियमित और लयबद्ध हो जाता है ।
शिष्य : प्राणायाम मानसिक क्षमताओं को बढ़ाता है – यह कैसे ? उच्चतर चेतन को ले आने में यह क्या भूमिका अदा करता है ?
श्री अरविन्द : प्राणिक प्रवाह ही मानसिक गतिविधि को बनाये रखते हैं । जब प्राणायाम से यह प्रवाह बदलते हैं तो यह मस्तिष्क में भी बदलाव लाते हैं । मस्तिष्क में मंदता का कारण है इसमें किसी तरह का अवरोध आना जिससे इसमें उच्चतर विचार के संप्रेषण को अनुमति नहीं मिल पाती । जब यह अवरोध हटा दिया जाता है तो उच्चतर मानसिक सत्ता आसानी से मस्तिष्क को अपने प्रभाव को संप्रेषित करने में समर्थ होती है । जब उच्चतर चेतन प्राप्त हो जाती है तो मस्तिष्क मन्द नहीं होता । मेरा अनुभव यह है कि यह प्रबुद्ध हो जाता है । सारे व्यायाम – श्वसन क्रिया के अभ्यासों की तरह केवल साधन है जिनके पीछे विद्यमान कोई चीज स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग करती है ।
भौतिक स्तर पर भी – यह और कुछ नहीं मात्र कुछ साधन ही है, एक अंकन पद्धति है, जिसे हम प्रयोग करते हैं । लेकिन हम साधन के रूपाकार को बहुत अधिक महत्व देते हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि भौतिक ही सर्वाधिक यथार्थ है । यदि हम केवल यह जान लें कि समस्त भौतिक जगत् एक शक्ति से निर्मित है और वह और कुछ नहीं एक निश्चित चेतना एवं शक्ति का कार्य-व्यापार है जो कुछ साधनों का उपयोग कर रही हैं तो हम धोखा न खायें ।
शिष्य : क्या यह सच है कि जब उच्चतर-चेतना का आगमन होता है तो मस्तिष्क सोचना बंद कर देता है ?
श्रीअरविन्द : तुम्हारा क्या मतलब है ? मस्तिष्क विचारणा का स्थान नहीं है । मन है जो सोचता है, मस्तिष्क केवल इस पर प्रतिक्रिया करता है । मस्तिष्क और उच्चतर मन की गतियों के बीच समान्तरता है । लेकिन मस्तिष्क केवल संप्रेषण माध्यम है । यह उच्चतर गतिविधि के लिए अवलंब मात्र है । यदि मन निश्चेष्ट रहता है तो यह ऊपर की चीजों को ग्रहण करता है – उच्चतर मन से आने वाली चीजों को और फिर उन्हें मस्तिष्कों को सौंप देता है । यदि मस्तिष्क मंद है तो मन अपनी क्रिया को ठीक से संप्रेषित नहीं कर सकता – अधूरे ढंग से करता है । कभी-कभी – सदैव नहीं – साधना में च्युति मस्तिष्क के थक जाने के कारण भी होती है ।
शिष्य : क्या सदैव इसी कारण नहीं ?
श्रीअरविन्द : नहीं, प्रफुल्लता के समय प्रगति बनी रहती है । लेकिन जब भौतिक मस्तिष्क मंद पड़ जाता है और संकल्प एवं मन के प्रयास को सहायता देने को मना कर देता है, तब तुम अनुभव करते हो की साधना में एक मंद और तामसिक स्थिति हस्तक्षेप करती है ।